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धर्मामृत
-सम्यग्दर्शन का कथामय निरूपण
समीक्षक : डॉ. रवेलचन्द आनन्द
युगपुरुष पूज्य श्री १०८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज दिगम्बर तपस्वियों की श्रेणी में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं। उन्होंने साधुचर्या करते हुए धार्मिक प्रवचनों द्वारा भारत भूमि के प्रायः सभी अंचलों को तपोपूत किया है, साथ ही सत्साहित्य की सर्जना द्वारा जैन-धर्म के सिद्धान्तों का संश्लेषण-विश्लेषण और व्याख्या-भाष्य प्रस्तुत कर जैन-साहित्य की अभिवृद्धि की है। आचार्यरत्न ने लगभग ७५-८० ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें उनके मौलिक और अनूदित दोनों प्रकार के ग्रन्थ हैं । आचार्यरत्न ने भारत की कई प्रादेशिक भाषाओं विशेष रूप से कन्नड़ भाषा की जैन-कृतियों को हिन्दी में अनूदित कर जैन धर्म और हिन्दी भाषा और साहित्य को उपकृत किया है। 'धर्मामृत' भी उनकी कन्नड़ भाषा से अनूदित महत्त्वपूर्ण कृति है।
'धर्मामृत' (हिन्दी अनुवाद दो भागों में) के मूल लेखक श्री नयसेन हैं। यह गद्यपद्यात्मक कृति १४ आश्वासों में विभक्त है। इस रचना का परिसमाप्ति काल कवि के अन्तःसाक्ष्य के आधार पर शक संवत् ११७६ है। कवि ने स्वयं को मुलुगुन्द ग्राम का निवासी कहा है और जिनेन्द्र के चरणों में भक्ति उत्पन्न करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर उसने इस काव्य की रचना की है। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, उसके आठ अंगों तथा पांच व्रतों का सुन्दर निरूपण हुआ है । इस निरूपण के लिए रचनाकार ने कथाओं का माध्यम अपनाया है। जैन-साहित्य के लेखकों और आचार्यों की एक प्रवृत्ति यह रही है कि वे किसी सिद्धान्त-प्रधान रचना में सिद्धान्त-विशेष के प्रतिपादन के अनन्तर कथा-माध्यम द्वारा उसका स्पष्टीकरण करते हैं और बीच-बीच में सुन्दर दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए उपदेश देना भी नहीं भूलते । नयसेन की इस रचना में भी यही प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इन कथाओं को पढ़ते समय पाठक इनमें रसमग्न हो जाता है और साथ ही 'धर्मामृत' के उपदेश-पीयूष का भी पान करता है। रचनाकार बड़े ही प्रभावी ढंग से ओजस्विनी शैली में कथा कहता हुआ सम्यग्दर्शन की व्याख्या करता जाता है और पाठक को बड़े सहज रूप से, अनायास ही जैन धर्म के सिद्धान्तों से अवगत कराता जाता है। इस प्रकार यह ग्रन्थ जैन धर्म-सिद्धान्तों का अमृतमय प्रवाह अपने में समेटे हुए अपने नाम को सार्थक करता है और अपने अज्ञातवृत्त रचयिता की अक्षुण्ण कीर्ति का आधारस्तम्भ बन जाता है।।
ग्रन्थ का आरम्भ भारतीय काव्य पद्धति के अनकल मंगलाचरण के साथ होता है, जिसमें ग्रन्थकार श्री जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करके उनके चरणों में त्रिलोक में सारभूत उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति के मार्ग-दर्शन के लिए प्रार्थना करता है । ग्रन्थ के इस हिन्दी अनुवाद में आचार्यरत्न ने मंगलाचरण की विद्वत्तापूर्ण व्याख्या करते हुए मंगलस्तवन की परिपाटी, सच्चे देव, अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, गुरु आदि के गुणों और स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है। इस प्रकार अनुवादक मूल ग्रंथ के अनुवाद के साथ-साथ टिप्पणी और भाष्य के रूप में जिस व्याख्या को प्रस्तुत करता है, उसमें उसकी विद्वत्ता तो प्रकट होती है, साथ ही मौलिक सृजन की प्रतिभा भी उद्भासित होती है। अनुवादक अपनी बात की पुष्टि के लिए प्राचीन धर्म-ग्रन्थों से उद्धरण भी प्रस्तुत करता है । 'सिद्ध' के सम्बन्ध में निम्नलिखित कथन से इसकी पुष्टि की जा सकती है-"जैसे संसारी जीव रागद्वेष मोह से वासित होकर मन, वचन, काय के योगों से व्यापार करते हुए शुभ व अशुभ कर्मों का संचय करते हैं, अतएव वे कर्मों का कारण हो जाते हैं, वैसे सिद्ध परमात्मा रागद्वेष, मोह व योगों के हलन-चलन से रहित होते हुए न किसी कर्म-वर्गणा को बांधते हैं, न कभी उस बंध का फल सुख-दुःख या संसार में भ्रमण पा सकते हैं।" (धर्मामृत, प्रथम भाग, पृष्ठ १८)
मंगलाचरण' के अनन्तर कवीन्द्र नयसेन ने काव्य के उद्देश्य, सुकवि और कुकवि में अन्तर, आध्यात्मिक विषय-वस्तु की प्रस्थापना, संस्कृत और भाषा काव्य की भिन्नता आदि का संक्षिप्त विवेचन किया है। कवि नयसेन के विचार हिन्दी के मध्ययुगीन रामभक्त कवि तुलसी के 'रामचरित मानस' के बालकाण्ड के प्रारम्भिककाव्यांश का स्मरण करा देते हैं, जहां कवि तुलसी घोषणा करते हैं, "कीन्हें प्राकृत जन गुणगाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।" नयसेन लिखते हैं-"जिस प्रकार रसोई में बिना नमक के सरस शाक आदि भोजन नहीं बन सकता है तथा घी के साथ अगर नमक का प्रयोग नहीं किया गया तो जीभ को स्वाद नहीं आता, उसी प्रकार यदि कविता में भगवान् की वाणी का रसास्वाद नहीं होगा तो वह मधुर और सुकाव्य नहीं बन सकती। (धर्मामृत, प्रथम भाग, पृष्ठ ४६) । इसी प्रकार तुलसी की तरह नयसेन
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