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अपने काव्य को सज्जनों द्वारा ग्राह्य और दुर्जनों द्वारा अग्राह्य मानते हैं—“सज्जन लोग मेरे द्वारा रचे हुए काव्य को देखकर किसी प्रकार की अवहेलना करेंगे या उस रचे हुए काव्य की निन्दा करेंगे, उसके विषय में मुझे तिलमात्र भी डर नहीं है, क्योंकि सज्जन लोग सदा एक से ही रहते हैं। वे काव्य के दोष को ग्रहण नहीं करते, उसके सार को ही ग्रहण करते हैं । और दुर्जन लोग सदा दुष्ट व्यवहार करते हैं, सार गभित मधुर कविता होने पर भी अपने अभिप्राय की बातें न मिलने के कारण उस सुकवि के रचे हुए काव्य की निन्दा करते रहते हैं। इसलिए मैं सबसे पहले अपने काव्य में दोषग्राही दुर्जनों को भी भगवान् समझकर पहले उनकी प्रदक्षिणा देता हूं।" (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ ४६-४७) नयसेन के इस कथन और तुलसी के सज्जन-दुर्जन प्रसंग में अद्भुत साम्य है। इतना ही नहीं कन्नड़ का यह साहित्यकार तुलसी की भांति ही 'कवि न होऊ नहिं चतुर कहावऊं। मति अनुरूप राम गुन गावहुं' की धारणा में विश्वास रखता है और अपनी विनम्रता इस प्रकार प्रकट करता है--"महान् कवियों के सामने मैं एक अल्पज्ञ बुद्धि कैसे टिक सकता हूं। अतः मेरे द्वारा रचे हुए काव्य में सज्जन लोग मेरे दोषों को न देखकर मेरे काव्य का पठन करें।" (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ ४७) अन्त में कवि इस ग्रंथ के प्रतिपाद्य के विषय में तुलसी की भांति ही सकेत करता है -"जो अतिशयशाली जिनेन्द्र भगवान् के वचनामत से परिपूरित है, जो समस्त जीवों का हित करने वाला है, पुण्यों को उत्पन्न करने वाला है, जो भव्यजनों से स्तुत है, पवित्र है, ऐसे धर्मामृत नाम काव्य को मैं विस्तारपूर्वक यथामति कहूंगा। (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ ४६) इस प्रकार उत्तर भारत की अवधी भाषा में रचित 'रामचरितमानस' तथा दक्षिण भारत की कन्नड़ भाषा में रचित 'धर्मामृत' के प्रारम्भिक अंशों को पढ़कर सुखद आश्चर्य होता है कि सम्पूर्ण भारत में विचारों का किस प्रकार अद्भुत साम्य था। एक-दूसरे को ये कवि विचारों के आदान-प्रदान से किस प्रकार प्रभावित करते थे।
धर्मामृत' के बक्ता गौतम गणधर हैं और श्रोता राजा श्रेणिक । कवि के अनुसार 'सम्यग्दर्शन' चतुर्गति के जन्म-जरा-मरण को दूर कर अनंत सुख प्रदान करने वाला है। कवि कहता है कि "इसके बिना यदि कोई मोक्ष की अभिलाषा करता है तो वह उसके समान है जैसे कोई बिना नेत्र देखना चाहता है, मिट्टी में बीज बोए बिना फल की इच्छा करता है, बिना बाण के लक्ष्यवेध करना चाहता है, बिना जहाज के समुद्र पार होना चाहता है।" (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ ५४) प्रथम आश्वास में कवि ने सम्यग्दर्शन के महत्त्व और स्वरूप का विस्तार से विवेचन करते हुए गिरिनगर के सेठ दयामित्र की कथा द्वारा अपने विवेचन को स्पष्टता प्रदान की है। "तत्व के ऊपर अचल श्रद्धान रखना और व्यवहार तथा निश्चयनय मार्ग से उसे समझकर स्वात्मानुभूति करना तत्त्व श्रद्धान है। यह तत्त्व श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) तीनों लोकों में पूजनीय है, अविनाशी सुख-शान्ति रूप मोक्ष को देने वाला है।" (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ ६२) इस सम्यग्दर्शन के बिना दान-जप-तप कुछ भी शोभा नहीं देता। इससे रहित ज्ञान और चरित्र भी अज्ञान और अचरित्र होते हैं। सम्यग्दर्शन ही निर्मल सुख का मूल है।
जैन धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं—निःशंका, निष्कांक्षता, निविचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और धर्मप्रभावना । 'धर्मामृत' के दूसरे से नवें आश्वास तक इन्हीं अंगों का प्रतिपादन किया गया है। कवि ने बड़ी सुबोध और रोचक भाषा शैली में इनके स्वरूप और महत्त्व को स्पष्ट करते हुए आठ कथाओं द्वारा उनको जीवन में आचरित करने के महत्त्व को भी प्रकाशित किया है । ये कथाएं हैं—विजयनगर के राजा अरिमंथन तथा उसके पुत्र ललितांग की कथा, चम्पापुर के प्रियदल सेठ की पुत्री अनन्तमती की कथा, रौरवपुर के राजा उद्दायन की कथा, कामलिप्त नगर के वैभवशाली जिनेन्द्र भक्त सेठ की कथा, वारिषण की कथा, सोमदत्त पुरोहित और बालक वज्रकुमार की कथा, अकम्पनाचार्य तथा राजा जयवर्मा की कथा । ये कथाएं यद्यपि सुपरिचित हैं, किन्तु कवि ने जिस रमणीयता और सरसता से इन्हें प्रस्तुत करते हुए सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विवेचन किया है, उससे ये कथाएं मौलिक और नवीन प्रतीत होती हैं।
'धर्मामृत' के अन्तिम पांच आश्वास पांच व्रतों के निरूपण से सम्बन्धित हैं। ये पांच व्रत हैं. -अहिंसा व्रत, सत्य व्रत, अचौर्य व्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, और अपरिग्रह व्रत । इन व्रतों का जैन धर्म में विशिष्ट महत्त्व है। इन्हें अणुव्रत कहा जाता है, "ये पांच अणुव्रत भव्य पुरुष को पंचरत्न के समान हैं। ये ही पांच रत्न मोक्ष-प्राप्ति करने में साधनभूत हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। ये पांच रत्न मनुष्य को हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों से मुक्त करते हैं (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ ७६) । कवीन्द्र नयसेन ने पाँच कथाओं द्वारा इन व्रतों का निरूपण किया है। इस प्रकार 'धर्मामत' में चौदह कथाओं के माध्यम से जैन धर्म के सम्यग्दर्शन की समग्ररूप में व्याख्या कवि नयसेन का उद्देश्य रहा है और इस उद्देश्य में कवि को पर्याप्त सफल माना जा सकता है।
'धर्मामृत' का धार्मिक महत्त्व तो असंदिग्ध है ही, इसका साहित्यिक महत्त्व भी है। सोद्देश्य काव्य की रचना करते हुए भी नयसेन ने इसके साहित्यिक एवं कलात्मक पक्ष को दृष्टि से ओझल नहीं किया। संस्कृत के स्थान पर कन्नड़ भाषा में रचना करना अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इससे कवि जन-सामान्य के निकट पहुंचा है और अपनी विचारधारा को अधिक सफलता से प्रचारित कर सका है। इस रचना में वर्णित दृष्टान्त तो मुग्ध करते ही हैं साथ ही इसमें आलंकारिक शैली का प्रयोग भी बड़ा प्रभावी बन पड़ा है। विशेष रूप से इस ग्रंथ में उपमाओं की भरमार है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए कवि ललित उपमाओं की झड़ी लगा देता है और सार्थक उपमानों के प्रयोग से अपने कथ्य को मार्मिक, सरस और प्रभावी बना देता है। किसी भी प्रसंग को पढ़िए, ललित उपमाएँ स्वयमेव पाठक
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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