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भी असाध्य प्रतीत होने वाले कार्य हैं, उन्हें भी किया जा सकता है; किन्तु हे दयामित्र ! तुम्हारा जो दिगम्बर साधु का व्रत है उसका पालन असाध्य है । वह व्रत नहीं है, वह तो तीक्ष्ण करोंत के समान है, जिसे मैं तो स्पर्श करने में भी डर रहा हूं। मुख से कहना तो सरल है किन्तु उस दिगम्बर मुनि व्रत का पालन करना अति कठिन है।।
D साधारण चने खाने वाला लोहे के चने नहीं चबा सकता। जैनधर्म केवल चने चबाने के समान नहीं है बल्कि लोहे के चने के समान अत्यन्त कठिन है । इसको महापुरुष ही धारण कर सकते हैं। जैन धर्म का पालन शूरवीर महापुरुष सरलता से करते हैं । जैसे सिंहनी का दूध सोने के पात्र में ही रह सकता है, उसी प्रकार पवित्र जैनधर्म का आचरण पवित्र हृदय वाले धीर-वीर महापुरुष द्वारा ही हो सकता है ।
जिसका मन शान्त हो गया है ऐसे निर्ग्रन्थ मुनि तृण और रत्न, शत्रु और मित्र, सुख और दुःख, श्मशान और प्रासाद, स्तुति और निन्दा तथा मरण और जीवन इन इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में स्पष्ट ही समबुद्धि रखते हैं। अभिप्राय यह है कि वे किसी वस्तु पर राग या द्वेष नहीं रखते ।
- यौवन, धन-सम्पत्ति, अधिकारमद और मूर्खता, यह एक-एक बात भी बहुत अनर्थकारिणी होती है । यदि एक ही व्यक्ति में ये चारों बातें हों तो फिर जो कुछ भो अनर्थ न हो जावे वह कम है। ये चारों बातें मिलकर महान् अनर्थ कर डालती हैं।
महानदियों का पानी कितना निर्मल तथा पीने योग्य होता है किन्तु जब वही खारे समुद्र में जाकर मिल जाता है तो पीने योग्य नहीं रह जाता। उस खारे जल का क्षारत्व उस मीठे जल में भी आ जाता है। यह कुसंग के दोष का परिणाम ही तो है। पानी का स्वभाव शीतल है किन्तु अग्नि के सम्पर्क से वह उष्ण हो जाता है और तब वह अग्नि के समान ही जलाने भी लगता है । शीतलता प्रदान करने वाले जल में दाहकता कहाँ से आई। उस अग्नि के साहचर्य से। ऐसे ही संगति के प्रभाब से मनुष्य में गुण और अवगुण आ जाते हैं । कुसंग से उसके सद्गुण नष्ट हो जाते हैं।
आज शिक्षा के नाम पर फैशन और बाहरी तड़क-भड़क को प्रमुखता दी जा रही है । अनुशासन के स्थान पर उइंडता का बोलबाला है। विनय को तुच्छता समझा जाता है । नम्रता को उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। सद्गुणों की श्री असद्गुणों के समुदाय में फीकी दिखाई देती है। इसका कारण है शिक्षा के क्षेत्र में तथा परिवार में उत्तम शिक्षकों तथा माता-पिताओं की योग्यता का अभाव । आज के माता-पिता अपने बालकों को स्कूल में भेजकर निश्चिन्त हो जाते हैं और समझने लगते हैं कि हमने अपने बालकों को मार्ग पर लगा दिया यानी अपना कर्त्तव्य पूरा कर दिया। माता-पिता की इस उदासीन मनोवृत्ति के कारण बालक में अपने वंश के स्वच्छ व उच्च संस्कार नहीं आ पाते जिससे कालान्तर में वे अपने परिवार के अनुक्रम में आये हुए शील, शौच, धर्म आदि से अछते रह जाते हैं। चरित्र-पतन की यह महामारी बालकों को उनकी उचित देखरेख के अभाव में ही त्रास देती है । अतएव समाज भीतर से खोखला हो रहा है
और हमारे अपने ही घरों में अपनी ही परम्परा और आचार के प्रति अवज्ञा करने वाले पुत्र उत्पन्न हो रहे हैं । आहार में, विहार में, शिक्षा में, धर्मव्यवहार में कोरे आज के बालक-बालिकाओं को धर्म के प्रति एवं सच्ची शिक्षा के प्रति जागरूक करना माता-पिता और अध्यापकों का, जिनके सम्पर्क में बालक अपनी संस्कार प्राप्त करने वाली अवस्था में रहता है, ध्यान देकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, क्योंकि बच्चे ही राष्ट्र की भावी निधि हैं, सम्पत्ति हैं।
जो तेजस्वी हो, यशस्वी हो, शरण में आने वाले मनुष्यों की रक्षा करने वाला हो, प्रवीण हो, दुष्टों का निरन्तर शासन (दमन) करता हो, विरोधी राजाओं को नष्ट करने में समर्थ हो, प्रजा की रक्षा करने वाला हो, दानवीर हो, धन का समुचित भोग करता हो, विवेक रखता हो, नीति के मार्ग का अनुसरण करने वाला हो, जिसकी प्रतिज्ञायें किसी उद्देश्य के लिए होती हों, जो किए हुए उपकार को कभी नहीं भूले, वह राजा पृथ्वी-मण्डल पर अखंडित आज्ञा करने वाला होता है तथा अपने धन-धान्य से समृद्ध राज्य का विस्तार करता है।
मक्खियां केवल गन्दगी पर ही बैठती हैं, वे उसी को अपना इष्ट मानती हैं, किन्तु वे कभी भी सुगन्धित चन्दन के पेड़ पर नहीं बैठती। इसी प्रकार मिथ्या दृष्टि मूर्ख लोग पाप-मार्ग को ग्रहण करते हैं, उसी को अपना इष्ट मानते हैं। उससे वे मिथ्यात्व के अन्धकार में भटक कर अनन्त संसारी बनते हैं। उनकी रुचि कभी सद्कर्म के प्रति नहीं होती।
जैसे पान से मुख की शोभा होती है, संगीत से कान तृप्त होते हैं, दिन से जनता जागत है, सूर्य से प्रकाश होता है, मोती से कंठ की शोभा होती है, उसी तरह निःकांक्षित (सांसारिक सुखों की अनिच्छा) से सम्यक्त्व की शोभा होती है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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