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विभिन्न आर्ष ग्रंथों को हिन्दी में अनूदित करके प्रकारान्तर से आचार्य श्री ने यह इंगित किया है कि यदि देवनागरी लिपि को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में अपना लिया जाए तो राष्ट्र की भाषा-समस्या का स्वयं ही समाधान हो जाएगा।
काव्य मान्यताएं
__ आचार्य श्री की साहित्य-समाराधना का उद्देश्य वीतराग भगवान् की वाणी में रस-निमग्न होकर मोक्ष-सुख की ओर अग्रसर होना है। उनकी मान्यता है कि जिस महाकाव्य अथवा काव्येतर रचना में जीवन को उदात्त बनाने के लिए सर्वशक्तिमान प्रभु की वाणी नहीं है वह रचना कभी भी मधुर एवं सुन्दर नहीं हो सकती। आचार्य नयसेन के माध्यम से उन्होंने अपने कथन को इस प्रकार पुष्ट किया है
मले इल्लवे पोयनिरिबेलेगुमे घरे मरुगि कुदिदु शास्त्रदबदि । दलिपि पेक्वोडमदुकोमल मक्कुमे सहजमिल्लदातन कब्बं ॥ (धर्मामृत, प्र० अध्याय, पृ० ४६)
अर्थात् जिस प्रकार बरसात के पानी के बिना गन्ना कोमल और सुरस नहीं हो सकता, उसी प्रकार भगवान् की वाणी के बिना कोई सुकवि मधुर और अच्छे शास्त्र की रचना नहीं कर सकता।
अपनी इसी मान्यता पर और अधिक बल देने के लिए आचार्य श्री ने लौकिक जगत् के उपमानों के माध्यम से अपने भाव स्पष्ट करते हुए कहा है
उप्पिल्दे केलोक्कल तुप्पवनेरेदुण्बेनवोडंबुणिसे स्वादप्पुदे सहज तनगिनि-सप्पोडमिल्लदनकविते रुचिवडेदपुदे ॥ (धर्मामृत, प्र० अध्याय, पृ० ४६)
अर्थात् जिस प्रकार रसोई में बिना नमक के सरस शाक आदि भोजन नहीं बन सकता, उसी प्रकार यदि कविता में भगवान् की वाणी का रसास्वाद नहीं होगा तो वह मधुर तथा सुकाव्य नहीं बन सकती।
एक धर्माचार्य के रूप में आचार्य श्री की महाकाव्यों के सम्बन्ध में परम्परा से भिन्न मान्यता है । भामह, दण्डी, रुद्रट इत्यादि ने महाकाव्य के लिए जिन मापदण्डों को निश्चित किया था वे आचार्य श्री को स्वीकार्य नहीं हैं । आचार्य श्री महाकाव्य के लिए ऐसे पात्रों का चयन आवश्यक मानते हैं जिनके पावन चरित्र का गुणगान करने से ८४ लाख योनियों में भ्रमण करने वाले जीव के कर्मों की निर्जरा होकर मुक्ति का मार्ग मिले। महाकवि रत्नाकर वर्णी के स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए उन्होंने कहा है
प्रचुरवि पवनेंट रचनेय वाक्य के। रंचिस्वरानंतु पेले। उचितके तक्कष्ट पेलवेन ध्यात्मवे । निचित प्रयोजन वेनगे। (भरतेश वैभव, भोग विजय, भाग १, पृ०६)
अर्थात् कविगण काव्य के कलेवर को पूर्ण करने के लिए समुद्र, नगर, राजा, रानी इत्यादि की पद्धति का निरूपण करते हैं, किन्तु मेरा प्रयोजन भरत की कथा के गान और अध्यात्म का रहा है।
काव्यशास्त्र में महाकाव्य के नायक एवं नायिका के शृंगार निरूपण को भी विशेष महत्त्व देते हुए कहा गया है कि इससे काव्य के गौरव में वृद्धि होती है । आचार्य श्री का दृष्टिकोण इससे सर्वथा भिन्न है। वे महापुरुषों के पावन चरित्र में आवश्यकता से अधिक श्रृंगार रस के वर्णन का समर्थन नहीं करते। 'भरतेश वैभव' के भोग विजय की १५ वीं सन्धि में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि "पति-पत्नी के एकान्तवास का वर्णन करना बुद्धिमानों का चातुर्य नहीं है।" इसी कारण 'भरतेश वैभव' का अनुवाद करते समय अनेक स्थलों पर उन्होंने संयम का परिचय दिया है। राजा भरत एवं पद्मनी से सम्बन्धित भोगपरक पद्यों का हिन्दी में अनुवाद न करके मार्गदर्शक आचार्य के रूप में उन्होंने लिख दिया है कि आगे का प्रसंग हिन्दी भाषा में अनूदित करने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। इसी प्रकार श्री नयसेन कृत 'धर्मामृत' के सातवें आश्वास में सम्यग्दर्शन के स्थितिकरण अंग की कथा में पद्य संख्या १६७ से २१६ तक का अनुवाद भी उन्होंने नहीं किया है। मूल कृतियों के साथ न्याय करने की भावना से अनूदित रचनाओं में मूल पद्यांश अवश्य दे दिया है।
आचार्य श्री की मान्यता है कि रचनाधर्मी साहित्यकारों को लोकापवादों की चिन्ता न करते हुए धर्मकथाओं के लेखन में निरन्तर संलग्न रहना चाहिए। कुछ व्यक्ति केवल दोष-दर्शन करते हैं । बुद्धिमान व्यक्तियों को उनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। आचार्य नयसेन के माध्यम से सम्यग्दर्शन के स्वरूप का विवेचन करते हुए वे कहते हैं, “सज्जन लोग काव्य में दोषों को ग्रहण नहीं करते । वे केवल उसके सार को देखते हैं। दुर्जन लोग सारगर्भित काव्य होने पर भी उसमें दोष देखते हैं।"
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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