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साहित्य-पुरुष श्री देशभूषण जी मूलतः दिगम्बर जैन परम्परा के युगप्रमुख आचार्य हैं। मुनि अथवा आचार्य के लिए धर्मशास्त्रों में विहित साधु धर्म का पालन प्राथमिक आवश्यकता है । जैन धर्म में तो आचार्य एवं मुनि से विशेष अपेक्षाएं की जाती हैं । शास्त्रों में वर्णित अट्ठाईस मूलगुणों का पालन उनके लिए आवश्यक है । आचार्य श्री देशभूषण जी की दिनचर्या का एक बड़ा भाग भी सामायिक, प्रतिक्रमण, आहार, प्रवचन, ध्यान, धर्मप्रभावना इत्यादि में व्यतीत होता है । चातुर्मास (वर्षायोग) के समय को छोड़कर उन्हें प्रायः धर्मप्रचार एवं तीर्थदर्शन के लिए लम्बी पदयात्राएं करनी होती हैं । ऐसी परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करने वाले साधक के लिए साहित्य समाराधना हेतु समय निकालना वास्तव में कठिन कार्य है, किन्तु सरस्वतीपुत्र आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी का साहित्य के प्रति असीम अनुराग है। स्वाध्याय के समय उनके मुखमंडल पर एक अपूर्व तेज एवं दिव्यभाव के दर्शन होते हैं । आचार्य श्री को साहित्य के अनुशीलन एवं परिशीलन के क्षणों में तल्लीन देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मपरिज्ञान के द्वारा मोक्षलक्ष्मी के वैभव से उनका तादात्म्य स्थापित हो गया है ।
आचार्य श्री की साहित्य-समाराधना के पुष्प प्रायः वर्षाकाल में खिलते हैं । जैन मुनियों के लिए वर्षायोग आत्मसाधना एवं स्वाध्याय का स्वर्णिम अवसर है। आचार्य श्री प्रायः वर्षायोग के समय मुनिचर्या के निर्दोष पालन के अतिरिक्त धर्मप्रचार एवं संस्कृति संरक्षण के लिए श्रावक समुदाय का विशेषत: भार्गदर्शन करते हैं। उन दिनों में आचार्य श्री प्रात: काल से मध्य रात्रि पर्यन्त प्रायः एक ही स्थान पर स्थित रहकर समस्त कार्यों को दिशा-निर्देश देते हैं। उनके आसन के सन्निकट एक चौकी पर स्वाध्याय हेतु अनेक धर्मग्रन्थ, समाचार पत्र एवं सन्दर्भ ग्रन्थ रखे रहते हैं और उन्हीं के मध्य पूर्ण तन्मय होकर आचार्य श्री साहित्य रस में समाधिस्थ हो जाते हैं । इसी कारण चातुर्मास के अवसरों पर उनके द्वारा प्रणीत साहित्य में धर्म का सूक्ष्म विश्लेषण विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है। प्राचीन साहित्य-ग्रन्थों का वे मात्र अनुवाद न करके प्रत्येक शब्द की विस्तृत व्याख्या करते हैं और अपने मन्तव्य को स्पष्ट करने के लिए कथा-उपकथाओं एवं दार्शनिक विवेचन का सम्बल लेते हैं। इसीलिए उनके द्वारा अनूदित एवं सम्पादित कृतियां मूल आकार में लघु होने पर भी उनकी प्रतिभा के संस्पर्श से विशालकाय धर्म-ग्रन्थों का रूप ले लेती हैं। 'रत्नाकर शतक' के ४५ वें पद्य की ४ पंक्तियों के अनुवाद की व्याख्या मे आचार्य श्री ने १३ पृष्ठों की विस्तृत व्याख्या की है ! प्रस्तुत पद्य में आहार, अभय, भेषज और शास्त्रदान की आवश्यकता एवं उनके स्वरूप का विवेचन किया गया है। आचार्य श्री द्वारा की गई इन उपांगों की विस्तृत व्याख्या ने एक स्वतन्त्र निबन्ध का रूप ही ले लिया है।
इसी प्रकार 'रत्नाकर शतक' के तीसरे एवं सातवें पद्य में भी दर्शन सम्बन्धी विषयों पर पन्द्रह-पन्द्रह पृष्ठों की सविस्तार विवेचना है। ज्ञान-साधना, अनुभव एवं काल-प्रवाह के साथ आचार्य श्री की यह विस्तारवादी व्याख्या-प्रवृत्ति और भी अधिक भास्वर होती गयी है। इसी के फलस्वरूप 'अपराजितेश्वर शतक' के ६७ वें पद्य की व्याख्या में उन्होंने लगभग ३० पृष्ठों में विषय का विस्तृत विवेचन किया है। आचार्य श्री द्वारा प्रणीत परवर्ती रचनाओं में तो उनका धर्मोपदेशक एवं व्याख्याकार का रूप अत्यन्त प्रबल हो गया है। भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन' नामक विशालकाय ग्रन्थ में आचार्य श्री कविवर नवलशाह की कृति 'वर्धमान पुराण' को मूलपाठ के साथ सरल हिन्दी में प्रस्तुत करना चाहते थे । भगवान् महावीर स्वामी के भव्य एवं विराट रूप ने उन्हें इतना अधिक मोह लिया कि वे 'स्व' को विस्मरण कर भगवान् महावीर स्वामी के युग में ही विचरण करने लगे। भगवान् महावीर स्वामी से पूर्व की स्थिति एवं उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन ही उनके अध्ययन, मनन एवं अनुसंधान का विषय हो गया। इसी के परिणामस्वरूप हिन्दी भाषा में लिखी गई ३८०६ छन्दों की रचना ने रायल अठपेजी आकार में लगभग ६५० पृष्ठों का बृहद रूप ले लिया। निस्सन्देह कहा जा सकता है कि आचार्य श्री द्वारा संकलित अनूदित रचनाएं यथा-भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन, भरतेश वैभव, धर्मामृत, रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक, मेरुमन्दर पुराण, शास्त्रसार समुच्चय, भावनासार, निर्वाण लक्ष्मीपति स्तुति इत्यादि में उनका भाष्यकार रूप अत्यधिक प्रबल हो गया है। किन्तु इन कृतियों में व्याख्या की इस बहुलता को देखकर यह अनुभव नहीं होता कि भाष्यकार ने कहीं भी विषय को बलात् रूप में प्रस्तुत किया है अथवा इस विस्तार के कारण मूल विषय को ग्रहण करने में किसी प्रकार की कठिनाई हो रही है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने इस व्याख्यात्मक शैली और भाष्यकार स्वरूप को साभिप्राय अपनाया है। वस्तुतः विदेशी आक्रमणों एवं धर्मान्ध शासकों के शासन काल में भारतीय धर्मों के आचार्यों ने भारतीय विद्याओं को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने की भावना से अपने ग्रन्थों में सूत्र शैली को अपनाया था। सूत्र शैली एवं कंठ विद्या उस समय की आवश्यकता थी। आज हमारा राष्ट्र परतन्त्र नहीं, स्वतन्त्र है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अहिंसामय साधना एवं उत्सर्ग से भारतीय समाज में साम्प्रदायिक कट्टरता भी अधिक नहीं पनप सकी। हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने भी सर्वधर्म सद्भाव की भावना को राष्ट्र की नीति का अभिन्न अंग बना दिया है। इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार के उदार शासनों में जैन एवं जैनेतर धर्मानुयायियों को अपनी कला, संस्कृति एवं साहित्य को विकसित करने का अवसर मिला है । आचार्य श्री ने समय की आवश्यकता के अनुसार सूत्र शैली को भाष्य रूप में परिवर्तित करके युगधर्म का निर्वाह किया है। एक धर्माचार्य के रूप में आचार्य श्री का व्यापक लोकसम्पर्क हुआ है। समाज के सभी वर्गों की बोध-क्षमता से वह भली-भांति परिचित हैं। यदि
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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