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आचार्य श्री द्वारा किसी रचना का अन्य भाषा में मात्र रूपान्तर कर दिया जाता तो जनसाधारण उसके भाव को पूर्णरूपेण नहीं समझ पाता। आज का मानव अनेकानेक प्रश्नचिह्नों से युक्त है। उसकी अपनी उलझनें हैं। उसके पास समय का अभाव है। वह धर्म और दर्शन की समस्याओं का बोझ अपने मस्तिष्क पर नहीं डालना चाहता। ऐसे संसार-चक्र में भ्रमण करने वाले सन्तप्त प्राणियों की समस्या से अभिभूत होकर करुणाशील आचार्य श्री ने उनकी समस्याओं के निदान के लिए भाष्यकार के रूप में कथारूपी धर्मामृत का अमृत कुंड प्रदान कर दिया है। अनुवादक के रूप में
___ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने अपनी साहित्य-यात्रा में कन्नड़ एवं तमिल के अनेक कालजयी धर्म-ग्रंथों यथामहाकवि रत्नाकर वर्णी कृत 'भरतेश वैभव', 'रत्नाकर शतक', 'अपराजितेश्वर शतक', श्री नयसेन कृत 'धर्मामृत', मुनि श्री बालचन्द्र कृत 'योगामृत',श्री पुट्टय्या स्वामी कृत 'भावनासार', श्री सुजनोत्तम कृत 'श्री निर्वाण लक्ष्मीपति स्तुति', श्री माघनन्दी कृत 'शास्त्रसारसमुच्चय' श्री वामनाचार्य कृत 'मेरु मन्दर पुराण' अथवा सुप्रसिद्ध तमिल ग्रंथ जीव सम्बोधनम् आदि का हिन्दी भाषा में अनुवाद एवं व्याख्या की है। इसी प्रकार हिन्दी भाषा के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का उन्होंने कन्नड़ एवं मराठी में अनुवाद किया है । कन्नड़ की अनेक रचनाओं का मराठी एवं गुजराती में भी उन्होंने अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त, यद्यपि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की किसी स्वतन्त्र रचना का उन्होंने अनुवाद नहीं किया तथापि उनके साहित्य में इन भाषाओं के काव्यांशों एवं गद्यांशों का बहुलता से प्रयोग मिलता है । अतः आचार्य श्री अधिकारपूर्वक यथास्थान उनका भी अनुवाद एवं विवेचन करते हैं। आचार्य श्री ने हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़ एवं बंगला में स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं।
जैनाचार्यों के लिए साहित्य की आराधना धर्म-प्रचार एवं मुक्ति का मार्ग है। धर्म के स्वरूप एवं उसमें निहित भावना से जनसाधारण को अवगत कराने के लिए उन्होंने साहित्य को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। इसीलिए समर्थ आचार्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे धर्म-प्रचार के लिए भारतीय भाषाओं एवं विभिन्न लोकभाषाओं (आंचलिक भाषाओं) में दक्षता प्राप्त करें। धर्म-सूत्रों की व्याख्या एवं धर्मग्रंथों के प्रणयन से पूर्व किसी भी आचार्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत साहित्य का गम्भीर अध्ययन भी करे । बहुभाषाविद् आचार्य श्री ने धर्मग्रंथों के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त होने से पूर्व ही भाषाशास्त्र, अर्थ की संस्कारपरकता एवं अर्थनिरूपण की प्रकृति पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया था।
अनुवाद कार्य वस्तुतः एक साधना है। किसी भी कवि अथवा लेखक की रचना का अनुवाद करते समय रूपान्तरकार को रचयिता से भावात्मक तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है । मूल लेखक के मनोभावों के साथ न्याय करने के लिए उसे विशद अध्ययन करना पड़ता है। काव्य का अनुवाद तो और भी अधिक दुष्कर है । काव्य के अनुवाद में प्राय: अनुवादक काव्य की आत्मा और कवि के मनोभाव के साथ न्याय नहीं कर पाते क्योंकि काव्य स्वयमेव सूत्र शैली में होता है। सूत्रों का रूपान्तर करने के लिए काव्य के वर्ण्य, उसकी व्यापक पृष्ठभूमि, कथा सन्दर्भ, प्रसंग-गर्भ, दार्शनिक शब्दावली इत्यादि का गम्भीर ज्ञान अत्यावश्यक है। अनुवाद प्रारम्भ करने से पूर्व आचार्य श्री अनूदित की जाने वाली रचना का पुनः पुनः अनेक धर्मसभाओं में पाठ और स्थानीय विद्वानों से विचार-विमर्श करते हैं। विषय पर अधिकार प्राप्त करने के उपरान्त ही वे अनुवाद कार्य में प्रवृत्त होते हैं । उनके द्वारा किए गए अनुवादों में यशलिप्सा की अपेक्षा आत्मकल्याण एवं धर्मप्रचार की भावना रहती है। अतः उनके द्वारा किए गए अनुवादों एवं व्याख्या में मोक्षसुख का बीज सन्निहित रहता है।
एक कुशल अनुवादक होते हुए भी उन्होंने अपनी स्वाभाविक विनम्रता के वशीभूत होकर भाषा के सम्बन्ध में अपनी 'अल्पज्ञता' को प्रकट करते हुए अनूदित रचना के सारतत्त्व को ग्रहण करने की सलाह दी है। आचार्य श्री के शब्दों में “महाकवि रत्नाकर के 'अपराजितेश्वर शतक' नामक कानड़ी ग्रंथ का अनुवाद करने की मेरे हृदय में उत्कंठा उत्पन्न हुई । पर मुझमें इतनी योग्यता नहीं थी कि इस बड़े भक्तिरसपूर्ण उत्तम ग्रंथ का अनुवाद मैं राष्ट्रभाषा हिन्दी में करता क्योंकि हमारी मातृभाषा कर्नाटकी है। अतः त्रुटियाँ रह जाना स्वाभाविक है। विवेकी पुरुषों को दोष छोड़कर गुण ग्रहण करना चाहिए । इस ग्रंथ में कवि ने भक्ति रस के रूप में बड़े ही सुन्दर ढंग से अध्यात्म रस का वर्णन किया है जिसके पढ़ने-सुनने से पाठकों को अपूर्व रस का आस्वादन होगा और उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त होगी।"
आचार्य श्री ने कन्नड़, तमिल, मराठी, गुजराती इत्यादि प्रादेशिक भाषाओं का अनुवाद करते समय कवि के मूल काव्य एवं कथा को भी देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया है। कन्नड़, तमिल, मराठी, गुजराती के पद्यों को देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध कर देने के कारण हिन्दी भाषा-भाषियों को कन्नड़ एवं तमिल की भक्तिपरक रचनाओं का हिन्दी में पाठ करने की सुगमता भी प्राप्त हो गई है। आचार्य श्री के इस प्रयास से हिन्दी भाषा-भाषियों को कन्नड़ इत्यादि भारतीय भाषाओं के माधुर्य एवं शब्दलालित्य से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ है। आचार्य श्री को उत्तर एवं दक्षिण की विभाजक रेखाओं को मिटाकर उन्हें एक सूत्र में समायोजित करने में सफलता मिली है।
-सृजन-संकल्प
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