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अध्ययन एवं लेखन कार्य भी निरन्तर चलता रहा है। श्रवणबेलगोल, नागपुर, शोलापुर, बंगलौर इत्यादि विभिन्न स्थानों पर उन्होंने निस्संकोच होकर विद्वानों की सहायता से भारतीय भाषाओं का गहरा अध्ययन किया और अनेक धर्मग्रन्थों के साहित्यिक, धार्मिक एवं दार्शनिक पक्षों पर विचार-विमर्श किया । वयोवृद्ध हो जाने पर भी आज तक इनमें ज्ञान-पिपासा की वृत्ति यथावत् बनी हुई है। ज्ञानाराधन के लिए वे संकोच की सीमाओं को तोड़ते हुए छोटे-बड़े किसी का भी सहयोग लेने में नहीं कतराते। एक युगप्रवर्तक दिगम्बराचार्य होते हुए भी उन्होंने ब्रह्मचारी माणिक्य नैनार (वर्तमान में क्षुल्लक इन्द्रभूषण) के सम्पर्क में आने पर उनके माध्यम से तमिल भाषा का अक्षराभ्यास किया। अपनी स्वाध्याय प्रवृति के कारण शीघ्र ही उन्होंने तमिलभाषा में निपुणता प्राप्त कर ली और तमिल के दो प्रसिद्ध महाकाव्यों 'मेरुमन्दर पुराण' एवं 'जीव सम्बोधनम्' का हिन्दी अनुवाद किया।
भारतीय स्वतन्त्रता दिवस (१५ अगस्त १९४७) के अवसर पर आचार्य श्री देशभुषण जी भारत की सांस्कृतिक राजधानी बनारस में चातुर्मास कर रहे थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि दक्षिण एवं उत्तर की रागात्मक एकता के लिए एक रचनात्मक सांस्कृतिक अभियान पलाना आवश्यक है। इस अभियान के यज्ञवेत्ता बनकर उन्होंने स्वयं दक्षिण भारत के जैन साहित्य का हिन्दी भाषा में और हिन्दी भाषा के साहित्य का दक्षिण भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने का संकल्प किया। भारतीय भाषाओं में विचारों की एकरूपता, समान शब्दावली इत्यादि का बोध कराने की दृष्टि से प्रादेशिक भाषाओं के ग्रन्थों का उन्होंने स्वयं भी अनुवाद किया और सुधी समालोचकों का ध्यान भी इस ओर आकृष्ट किया। सन् १९४८ में आचार्य श्री ने सूरत (गुजरात) में चातुर्मास किया और रत्नाकर कवि के कन्नड़ महाकाव्य 'भरतेश वैभव' पर विशेष प्रवचन दिए। आपकी प्रेरणा से ही श्री बाबू भाई शाह एडवोकेट ने इस कालजयी कृति का गुजराती में अनुवाद किया। सन् १९४६ से १९५७ तक आचार्य श्री का कार्यक्षेत्र हिन्दी भाषी प्रान्त रहे हैं। इस कालखंड में आचार्य श्री ने बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान एवं दिल्ली के गांवों में, कस्बों में, नगर, उपनगरों में एवं प्रान्तों में सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने की ज्योति प्रज्जवलित की। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के साकार रूप आचार्य श्री ने इस कालखण्ड में जैन धर्म की पांडुलिपियों के लिए विश्वविख्यात 'जैन सिद्धांत भवन'(आरा) के पुस्तकालय का विशेष रूप से अवलोकन किया।
एक युगप्रमुख आचार्य होते हुए भी आप पुस्तकालय में अनुसन्धान छात्र के रूप में दिन-रात स्वाध्याय एवं लेखन कार्य किया करते थे। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उन दिनों यह प्रतीत होता था मानों 'जैन सिद्धांत भवन' में श्रुतावतार का आविर्भाव हो गया हो। इस अवधि में आचार्य श्री ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन एवं अनुवाद कार्य किया। इस यात्रा में उन्हें राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश एवं दिल्ली के जिनालयों में उपलब्ध प्राचीन साहित्य को देखने का अवसर भी मिला। सन् १६५८ में आचार्य श्री का कलकत्ता में चातुर्मास हुआ और उन्होंने बंगला भाषा में दक्षता प्राप्त की । उनके प्रवचनों में कभी-कभी बंगला साहित्य के उदाहरण इसी दक्षता के परिणामस्वरूप सहज में आ जाते हैं। इस चातुभास में आचार्य श्री ने बंगला भाषा में दिगम्बर मुनि' ग्रंथ का प्रणयन भी किया।
सन् १९५६ से १९८६ के कालखंड में आचार्य श्री ने इस पवित्र देश की विराट् परिक्रमा करके मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था का भाव जगाया. एक उदार सन्त के रूप में आपने विश्व के विभिन्न धर्म ग्रन्थों का अध्ययन किया और अपने उपदेशों में उदारतापूर्वक उनका प्रतिपादन करके विश्वबन्धुत्व एवं राष्ट्रीय सद्भाव को बल प्रदान किया। एक दिगम्बर साधक के रूप में आपने आचार्य धर्म एवं उसकी पवित्र मर्यादाओं का निर्वाह करते हुए विपुल साहित्य की सृष्टि की है और धर्मप्रभावना के निमित्त विद्वानों एवं श्रेष्ठियों का सहयोग लेकर अनेक लुप्तप्रायः रचनाओं से भारतीय साहित्य जगत् को समृद्ध किया है। आचार्य श्री द्वारा प्रणीत, अनूदित, सम्पादित एवं उत्प्रेरित साहित्य की यह सूची इस प्रकार है
राण
१. भगवान् महावीर और उनका तत्त्व-दर्शन २. भरतेश वैभव-भोगविजय भाग १ खंड १ ३. भरतेश वैभव-भोगविजय भाग १ खंड २ ४. भरतेश वैभव-भोगविजय भाग १ खंड ३ ५. भरतेश वैभव-दिग्विजय भाग २ खंड १ ६.धर्मामृत-भाग १ ७. धर्मामृत-भाग २ ८. रत्नाकर शतक-भाग १ ६.रत्नाकर शतक - भाग २ १०. अपराजितेश्वर शतक-भाग १
११. अपराजितेश्वर शतक-भाग २ १२. मेरुमन्दर पुराण १३. जीव सम्बोधनम् (अप्रकाशित) १४. णमोकार ग्रन्थ १५. णमोकार कल्प १६. शास्त्रसार समुच्चय १७. निर्वाण लक्ष्मीपति स्तुति १८. निरंजन स्तुति १६. भक्ति स्तोत्र संग्रह २०. भक्तामर सचित्र (अप्रकाशित)
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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