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भरतेश वैभव
हे आत्मन्! तुम परब्रह्म हो । तीनों लोकों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो। ज्ञान ही तुम्हारा वस्त्र है। सर्वकर्म-कलंक रहित हो और पापों को जीतने वाले हो । इसलिए तुमको नमस्कार है।
0 भगवान् आदिनाथ के ज्येष्ठ पुत्र नर लोक के एकमात्र सम्राट् थे। क्षणमात्र दृष्टि बन्द कर मोक्ष को प्राप्त करने वाले उन चक्रवर्ती भरत का मैं क्या वर्णन करू ? सोलहवें मनु, प्रथम चक्रवर्ती, अन्तःपुर वासिनियों के लिए कामदेव, विवेकियों के चूड़ामणि एवम् तद्भव मोक्षगामी भरत का वर्णन करने में मैं कहां तक समर्थ हो सकता है । सम्राट भरत का गुण-कीर्तन कैसे किया जाय क्योंकि उदाहरण देने के लिए उनके तुल्य न कोई राजा है और न कोई वस्तु ।
0 संसार में अक्सर यह देखा जाता है कि किसी के पास रूप है तो शील नहीं, शील है तो विद्या नहीं, विद्या है तो शरीर की सुन्दरता नहीं। शरीर की सुन्दरता है तो गंभीरता नहीं, गंभीरता है तो पराक्रम नहीं, पराक्रम है तो युवा नहीं, युवा है तो शरीर-शृङ्गार नहीं । लेकिन सम्राट् भरत में मणिकंचन संयोग तुल्य सर्वगुण विद्यमान थे।
0 भगवान् की ध्वनि दिव्य है । स्वयमेव भगवान् दिव्य हैं एवम् उनका मुख भी दिव्य व दर्शन भी दिय तथा ज्ञान एवम् शक्ति भी दिव्य हैं । इसलिए उनकी सिद्धि भी दिव्य हैं ।
0 चमकता हुआ दर्पण हाथ में होते हुए भी पानी में अपने प्रतिबिम्ब को देखने वाले मूर्ख के समान अपने शरीर के भीतर रहने वाली आत्मा को न देखकर यह जीव सर्वत्र घूम रहा है।
0 घर में गढ़ी हुई निधि को नहीं देखते हुए श्रीमन्त (धनिक) के पास जाकर याचना करने के समान अनादि काल से शरीर में रहने वाले आत्मा रूपी निधि को न देखते हुए बाहर ही भटकता हुआ सर्वत्र ढूंढ़ रहा है।
0 हरे-भरे पतों को छोड़कर जैसे हाथी ईख के रस का स्वाद लेता है उसी प्रकार कोई-कोई भेद-ज्ञानी शरीर के सुख को तुच्छ मानकर आत्म-सुख का ही अनुभव करता है।
अपने हाथ में विद्यमान पदार्थ को न देखकर सारे जंगल में उसे खोजने वाले मनुष्य के समान शरीर में स्थित आत्मा को न देखते हुए सारे लोक में ढूंढ़ने पर क्या आत्मा की प्राप्ति होगी? कदापि नहीं।
0 ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है। वह आत्मा निर्मल ज्ञान दर्शनमय स्वरूप है । ये ज्ञान दर्शन ही आत्मा का चिह्न है। ऐसा विचार करने वाले पुरुष धन्य हैं।
C यह आत्मा पुरुषाकार होकर शरीर में रहते हुए भी शरीर को स्पर्श नहीं करता है और न शरीर में मिलता है। आकाश के बीच में पुरुषाकार रूप बनाये हुए चित्र के समान यह आत्मा है। जैसे तांबे की चद्दर में निर्मित की हुई छाया प्रतिमा दिन में प्रकाशमय दीखती है, ठीक उसी प्रकार छाया प्रतिमा की तरह शरीर में पुरुषाकार रूप में आत्मा रहती है। छाया प्रतिमा तथा पुरुष की छाया को ज्ञान नहीं है, उसी प्रकार मनगोचर, वाक्गोचर एवम् दूसरों के द्वारा नहीं जाना जाने वाला ऐसी शुद्ध आत्मा छाया की भांति अपने शरीर में ही है।
0 यह शरीर एक बाजे के समान है। वाद्य को जब तक बजाने वाला नहीं बजाता तब तक उस शरीर का कोई उपयोग नहीं हो सकता । न बोलने वाले शरीर को आत्मा होने से गुंजार कराने लगता है, न चलने वाले को चलाता है, ध्येय (शरीर) और आत्मा दोनों को भिन्न न समझ करके संसार दुःखी हो रहा है। भेद ज्ञान न होने के कारण शरीर के दुःखी होने पर आत्मा भी दुःखी हो जाती है।
D सिद्धि दो प्रकार की होती है-एक लौकिक, दूसरी पारमार्थिक । वैरियों का सामना कर अनेक प्रकार की चालबाजियों व युक्तियों से जीतना लौकिक अर्थ सिद्धि है । अनादि काल से आत्मा के साथ सन्तान के रूप में रहकर सतत आत्मा को भयभीत करने वाले काल रूपी कर्म को स्वाधीन कर उसका सामना करके जीतना पारमार्थिक सिद्धि है।
0 राजा सर्वगुण सम्पन्न होना चाहिये । जैसा राजा होता है उसी प्रकार प्रजा भी होती है। राजा को भोग विचार एवम् आत्म-योग विचार भी होना चाहिये तथा रागरसिक भी होना चाहिये एवम् भावपूर्वक वीतराग रसिक भी होना चाहिये। शृङ्गार रसिक भी तथा अध्यात्म रसिक भी होना चाहिये। शत्रु ओं का सामना करने वाला भी होना चाहिये तथा आत्मयोग प्राप्त करने में भी कुशल होना चाहिये । इह लौकिक सुख का उपभोग करते हुए धर्म में उत्सुक होना चाहिये । देखने वाले को ऐसा मालूम होना चाहिये कि संसार रूपी माया में फंसा हुआ है लेकिन हृदय में उसे नि:स्पृह होना चाहिये।
0 विज्ञान दो प्रकार का है-बाह्य विज्ञान, अन्तरंग विज्ञान । बाह्य विषयों के जानने वाले (आत्मा से भिन्न) सभी बाह्य विज्ञान कहलाते हैं और अपनी आत्मा को जानना अन्तरंग विज्ञान है । जगत् में रत्न-परीक्षा करने के लिए प्रयत्न करना व हाथी
अमृत-कण
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