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पद को प्राप्त करता है । ज्ञान के कारण ही जीव करोड़ों जन्मों से अजित कर्मों को क्षण भर में त्रिगुप्तियों के द्वारा नष्ट कर देता है।
0 मोह ने इस जीव को पागल बना दिया है । मोह के दूर होते ही इस जीव को शरीर और भोगों से घृणा हो जाती है। उसके मन में वैराग्य की भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । संसार और शरीर दोनों की वास्तविकता दिखलायी पड़ने लगती है । वह शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न देखने लगता है।
0 कल्याण-प्राप्ति के मूलतः दो ही मार्ग हैं -आचार और विचार की शुद्धि। इन दोनों का प्रायः तादात्म्य सम्बन्ध है। आचार को शुद्धता से विचारों में शुद्धता आती है और विचार की शुद्धता से आचार में। जो व्यक्ति इन दोनों का सम्बन्ध नहीं समझते वे ग़लत मार्ग पर हैं । नर-भव की सार्थकता राग-रंगों को पाकर भी इनसे अनासक्त रहने में है । अपनी शक्ति और योग्यता के अनुसार श्रद्धापूर्वक निवृत्ति मार्ग की ओर जाना, संसार के चमकीले-भड़कीले पर-पदार्थों से पृथक् रहने की चेष्टा करना ही कल्याणकारक है। जिन व्यक्तियों के विचार शुद्ध हैं, जिनकी प्रवृत्ति राग-द्वेष से परे रहती है वे अपने आचरण को उन्नत बना लेते हैं। उनकी दृष्टि विशाल हो जाती है। स्वार्थ की संकुचित सीमा टूट जाती है जिससे पर-पदार्थों के प्रति व्यग्रता नहीं होती।
0 विद्वान और राजा दोनों को एक-सा नहीं कह सकते क्योंकि राजा केवल अपने देश में ही पूजनीय होता है, किन्तु विद्यावान् तो चाहे किसी भी देश में चला जाए वहां उसका पूजा-सत्कार होता है । इस विद्या रूपी धन को जितना खर्चोंगे उतना ही बढ़ेगा। यह विद्या रूपी वह गुप्त धन है जिसको चोर नहीं चुरा सकता, राजा नहीं छीन सकता, भाई-बन्धु बँटवा नहीं सकते। विद्या वह धन है जो कामधेनु तथा कल्पवृक्ष के समान है। इसका जो कोई संचय करेगा, उसको दिनों-दिन अधिक सुख मिलेगा। जिसके पास यह धन है उसका चित्त हर समय प्रसन्न बना रहेगा, चिन्ता तो उसके पास फटकने भी नहीं पायेगी। जितना भी इसको ख!गे, उससे भी कहीं हजारों लाखों गुणी अधिक बढ़ेगी।
0 शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर शान्ति और सहिष्णुता को धारण करना, अहंकार से रहित होना, धार्मिक बनना, मृदु बातें करना, मोक्ष-चिन्ता तथा स्वात्म-चिन्ता में निरत रहना श्रेष्ठ कर्तव्य है। जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर अपना कल्याण नहीं करता, विषयों के अधीन रहता है, उसे धिक्कार है । उस व्यक्ति का ज्ञान शास्त्रीय ज्ञान नहीं कहलाता बल्कि शस्त्र-ज्ञान कहलाता है । सदाचार के बिना ज्ञान बोझ के समान है । ज्ञान का एक मात्र ध्येय आत्मोन्नति करना है, अपने आचरण का विकास करना है। किन्तु जहाँ स्वपर का विवेक नहीं होता भेद-विज्ञान की प्राप्ति नहीं होती वह ज्ञान कोरा ज्ञान ही है । उसके रहते हुए भी जीव अज्ञानी के समान है । सम्यग्ज्ञानी ही संसार के पदार्थों को जानते हुए उदासीन रहता है । यद्यपि ज्ञान का कार्य पदार्थों को जानना है, पर सम्यग्ज्ञानी जानकर भी उनमें अनुरक्त नहीं होता।
O आशा एक नदी है। इसमें इच्छा रूपी जल है । तृष्णा इस नदी की तरंगें हैं। प्रीति इसके मगर हैं। तर्क-वितर्क या दलीलें इसके पक्षी हैं। मोह इसकी भंवर । चिन्ता ही इसके किनारे हैं । यह आशा नदी धैर्य रूपी वृक्ष को गिराने वाली है। इस कारण इससे पार होना बड़ा कठिन है । जो शुद्धचित्त योगी-मुनि इसके पार चले जाते हैं, वे असीम आनन्द प्राप्त करते हैं।
0 योग के कारण आत्मा की शक्तियों का विकास होता है । इन्द्रिय और मन का निग्रह होने के कारण आत्मा की छिपी हई शक्तियों का आविर्भाव हो जाता है । आत्मा का चिन्तन योगी सरलता से कर सकता है। वह अपने प्रयत्न द्वारा मन, वचन और कर्म की असत् प्रवृत्तियों के साथ-साथ सत्प्रवृत्तियों पर भी अपना नियंत्रण कर लेता है।
( मनुष्य का यह स्वभाव है कि उसे जितनी अपनी प्रशंसा प्रिय होती है उतनी अन्य व्यक्ति की नहीं। यह तो उसकी कमजोरी है। जिसकी आत्मा में शक्ति उद्बुद्ध हो जाती है उसका यह संकुचित दायरा नहीं रहता । उसे गुणी मनुष्य के गुण प्रिय होते हैं। गुणों की प्रशंसा सुनकर उसके मन में हर्ष होता है।
O जन्म-जन्मान्तर के कर्मों का फल प्रत्येक व्यक्ति को भोगना पड़ता है। प्रधानतः कर्म दो प्रकार के होते हैं-पुण्य कर्म और पाप कर्म । पुण्य कर्म के उदय से व्यक्ति को नाना प्रकार की सुख-सामग्री मिलती है और पाप कर्मों के उदय से दुःख सामग्री।
0 प्रभु भक्ति करने से संसार से वैराग्य हो जाता है । उसे कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान हो जाता है। प्रतिदिन भगवान् के दर्शन करने से आत्मा में अपूर्व शक्ति आ जाती है । वह किसी भी असम्भव कार्य को कर सकता है । नाना प्रकार की विपत्तियां आने पर भी कार्य से डिगता नहीं। उसे प्रभु भक्ति में अपूर्व रस और आनंद आता है । वह समस्त संसार के भोगों में नीरसता का अनुभव करने लगता है।
C आत्मा का गुरु निश्चय रूप से आत्मा ही है ; क्योंकि अपने भीतर स्वयं हित की लालसा उत्पन्न होती है तथा स्वयं अपने को ही मोक्ष का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है । अपने को ही अपने हित के लिए प्रयत्न करना पड़ता है । जो स्वयं पुरुषार्थ नहीं करते
अमृत-कण
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