________________
मुनियों का धर्म १० प्रकार का है। (४) उत्तम शौच, (५) उत्तम सत्य, (६) उत्तम संयम, (७) ब्रह्मचर्य ।
अपने मन में क्रोध भाव न लाकर यों विचार करना कि मैं भेदात्मक तथा अभेदात्मक रत्नत्रय का धारक हूं, ऐसी भावना का नाम उत्तम क्षमा है । ज्ञान, तप, रूप आदि आठ प्रकार का अभिमान न करना, अपने अपमान होने पर भी खेद - खिन्न न होना तथा सम्मान होने पर प्रसन्न न होना मार्दव धर्म है । मन वचन शरीर की क्रियाओं (विचार, वाणी और काम) में कुटिलता न आने देना आर्जव धर्म है। किसी भी पदार्थ पर लोभ न करके अपना मन पवित्र रखना शौच धर्म है । राग द्वेष मोह आदि के कारण झूठ न बोलना सत्य धर्म है। मन वचन काय की शुद्धि द्वारा किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं देना संयम धर्म है । अनशनादिक बहिरङ्ग तथा प्रायश्चित्त आदि अन्तरङ्ग तपों का आचरण करना तप धर्म है । संसार के समस्त पदार्थों से भी मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती, ऐसा विचार करके परमाणु मात्र भी पर-पदार्थ अपने पास न रखकर उनका त्याग कर देना त्याग धर्म है । अन्य पदार्थों की बात तो दूर है, अपना शरीर तथा शरीर से उत्पन्न हुआ पुत्र-पौत्र आदि परिवार भी आत्मा का अपना नहीं है, ऐसा विचार करके किसी भी पदार्थ में ममत्व भाव न रखना आकिञ्चन्य धर्मं है । विषयवासना का त्याग करके अपने आत्मा में रत रहना ब्रह्मचर्य धर्म है।
(१) उत्तम क्षमा, (२) उत्तम मार्दव, (३) उत्तम आर्जव, उत्तम तप, (८) उत्तम त्याग, (१) उत्तम आकिञ्चन्य, (१०) उत्तम
सम्पत्तिशाली, समस्त इष्ट पदार्थ प्रदान करने वाला मोक्ष कारण, चतुर्गति भ्रमण संसार दुःख को नाश करने वाला तथा लोक का हितकारी पंचपरमेष्ठी का मन्त्र सदा मेरे हृदय में रहे। पंचपरमेष्ठी का पद अनन्तानन्तकाल से संचित पापों को नष्ट करता है तथा पंचमगति मोक्ष को शीघ्र बुलाकर देने वाला है । इस पंचपरमेष्ठी की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? भयानक रोग, चोर, शत्रु, अग्नि, जल, राजरोग आदि भयंकर दुःखों का नाश करने वाला सारभूत पंच नमस्कार मन्त्र कल्प वृक्ष के समान हृदय में विराजमान रहे। यह पंचणमोकार मन्त्र सागर रूपी कीचड़ का नाश कर देता है, शाकिनी, डाकिनी, भूत, पिशाच आदि को भगा देता है । समस्त मङ्गलों में उत्तम है ।
यह पंच नमस्कार मन्त्र तीन लोकों को कंपा देता है, तीन लोकों में सर्वोत्तम गर्भावतरण, जन्माभिषेक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान तथा लक्ष्मी को आकर्षण करके देने वाला है । अनुपम उत्कृष्ट मोक्ष लक्ष्मी को वश में करके देने वाला यह मन्त्र है । ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय करने वाला है । त्रिलोकवर्ती समस्त प्राणियों को मोहित करने वाला है । ऐसा अतिशयशाली अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु के नमस्कार रूप मन्त्र मेरी जीभ पर सदा निवास करे ।
पंचपरमेष्ठी के नाम रूप मन्त्राक्षर अत्यन्त प्रबल कर्मशत्रु को नाश करने वाले हैं, प्रबल मिथ्यात्व ग्रह को भगाने वाले हैं, दुष्ट कामदेव रूप सर्प के विष को निर्विष करने वाले हैं, रागादि परपरिणति से होने वाले कर्मास्रव को रोक देते हैं, इन्द्र धरणीन्द्र पदवी को प्रदान करने वाले हैं, मोक्ष लक्ष्मी को मोहित करने वाले हैं तथा सरस्वती को मुग्ध करने वाले हैं।
[] अर्हत शब्द में 'अ' अक्षर परम ज्ञान का वाचक है, 'र' अक्षर समस्त लोक के दर्शक का वाचक है, 'ह' अक्षर अनन्त बल का सूचक है, बिन्दु ( बिन्दी ) उत्तम सुख का सूचक है ।
1
→ अर्हन्त परमेष्ठी का प्रथम अक्षर 'अ' अशरीरी (पौगलिक शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी) परमेष्ठी का आदि अक्षर 'अ', आचार्य परमेष्ठी का आदि अक्षर 'आ'; इन तीनों अ + अ + आ को मिलाकर सवर्ण स्वर सन्धि के नियम अनुसार तीनों अक्षरों का एक अक्षर 'आ' हो गया । उपाध्याय परमेष्ठी का प्रथम 'उ' है। पहले तीन परमेष्ठियों के आदि अक्षरों को मिलाकर जो 'आ' बना था उसमें 'उ' जोड़ देने पर ( आ + उ ) स्वर सन्धि के नियम अनुसार दोनों अक्षरों के स्थान पर एक 'ओ' अक्षर हो गया। पांचवें परमेष्ठी 'मुनि' का प्रथम अक्षर 'म्' है । उसको चार परमेष्ठियों के आदि अक्षरों के सम्मिलित अक्षर 'ओ' के साथ मिला देने पर 'ओम्' बन जाता है । इस प्रकार 'ओम्' या ॐ शब्द पंच परमेष्ठियों का वाचक है ।
अमृत-कण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
εε
www.jainelibrary.org