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अपराजितेश्वर शतक
0 हे अपराजितेश्वर! जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इन सात तत्त्वों पर श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है। इन सात तत्त्वों के अर्थ अपने मन में ठीक तरह से समझ लेना सम्यग्ज्ञान है । अहिंसा धर्म में या जिनवाणी में बाधा न आए, इस तरह आचरण करना यह सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार ये तीन रत्नत्रय हैं। इन तीन रत्नत्रयों की प्राप्ति किस समुद्र से है ? इस अनमोल रत्नत्रय का स्थान श्रेष्ठ तप ही एक समुद्र है।।
0 अरे मूर्ख! तू इस शरीर में वृथा क्यों आसक्त हो रहा है ? इस शरीर को तू केवल जे नखाना समझ । जेलखाना बड़े-बड़े पत्थर सहतीर वगैरह लगाकर बनता है। यह शरीर हड्डियों से बना हुआ है। जेलखाना लोहे और पत्थर आदि के परकोटे से घिरा हुआ होता है, यह शरीर शिरा स्नायुओं से जकड़ा हुआ है । जेलखाना भी कैदी लोग कहीं से निकल न जाएँ इसके लिए सब तरफ से ढंका हुआ रहता है, यह शरीर चमड़े से ढंका हुआ है। जेलखाने में जहाँ-तहाँ कैदियों के आघात से रुधिर, मांस दृष्टिगोचर होता है परन्तु शरीर के भीतर सभी जगह वह भरा हुआ है। कैदी कहीं भाग न जाए इसलिए जेलखाने के आस-पास जेल के स्वामी की तरफ़ से चारों तरफ़ मनुष्यों का पहरा लगा रहता है। इसी प्रकार इस शरीर में भी दुष्ट कर्म शत्रुओं का पहरा लगा रहता है। जेलखाने में जगह-जगह दरवाजों के बीच में अर्गला की लकड़ी लगी रहती है जिससे कैदी बाहर न निकल जाएँ। यहां भी जीव-कैदी को रोकने के लिए आयु रूप मजबूत अर्गला लगी हुई है। जब तक आयु अर्गला नहीं हटती हैं तब तक जीव रूप कदी शरीर में से बाहर नहीं निकल सकता । जब ऐसा है तो शरीर और जेलखाने में क्या अन्तर है ? कुछ भी नहीं।
0 पूजा में स्वस्तिक की स्थापना कल्याण तथा सिद्धत्व की प्राप्ति के हेतु होती है । स्वस्तिक के बीच के चार शून्य चार गतियों के द्योतक हैं। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए इन चारों गतियों का नाश आवश्यक है। इन गतियों का नाश होने पर ही अन्तिम परमस्थानों और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय की पूर्ण प्राप्ति सम्भव है। इसका प्रयोजन क्रमशः चार अनुयोगों की आराधना, चौबीस तीर्थकरों की भक्ति, पांच परमेष्ठी तथा युगल चारण मुनियों के चार चरणों का ध्यान है। पूजा के आरम्भ में स्वस्तिक में आराधक इसी भाव की स्थापना करते हैं।
0 जो अज्ञानी मनुष्य शत्रु के आधीन मित्र को, पातिव्रत्य रहित स्त्री को, कुलनाशक पुत्र को, मूर्ख मंत्री को, स्वार्थी राजा को, प्रमादी वैद्य को, रागयुक्त देव को, विषयासक्त गुरु को तथा दया से वजित धर्म को प्रमादवश नहीं छोड़ता है, उसे पुण्य छोड़ देता है।
हाथी मद से, पानी कमलों से, रात्रि पूर्ण चन्द्रमा से, वाणी व्याकरण से, नदियां हंसों के मिथुनों से, सभा पण्डितों से, स्त्री शील व्रत से, अश्व दौड़ने से, मन्दिर नित्य मंगलोत्सव करने से, कुल सत्पुत्र से, पृथ्वी राजा से तथा तीनों लोक धर्म से सुशोभित होते हैं । इसलिये मनुष्य को धर्म नहीं छोड़ना चाहिये।
रात्रि का दीपक चन्द्रमा, प्रभात का दीपक सूर्य, कुल का दीपक सत्पुत्र तथा तीनों लोकों का दीपक धर्म है । इसलिये मनुष्य को धर्म कदापि नहीं छोड़ना चाहिये।
0हे अपराजितेश्वर ! यह आत्मा एक भी है अनेक भी है, कम ज्यादा भी है, नाशरहित है, नाशवंत भी है, अस्ति रूप है, नास्तिक रूप भी है। तीनों लोक के परिमित है और धारण किये हुए शरीर के प्रमाण भी है । लोकालोक को व्यापे हुए है व कर्मबद्ध भी है और मुक्त भी है। इस प्रकार इसकी महिमा को कौन जान सकता है ? यह तो ध्यान में योगियों को गम्य है, अन्यथा नहीं।
0 जिन-मन्दिर पर शिखर और शिखर से ऊंचा ध्वज स्तम्भ होना चाहिये। शिखरों के कलशों से ध्वजा सदा ऊंची होनी चाहिये । नीची ध्वजा शुभ नहीं होती है। जिस प्रकार व्रत की पूर्णता उद्यापन से होती है, भोजन की पूर्णता और शोभा तांबूल से होती है, उसी प्रकार जिन-भवन की शोभा और पूर्णता शिखर कलश और ध्वजा स्तम्भ से होती है।
0 जो पुरुष बिम्बाफल पत्ते के समान बहुत छोटा चैत्यालय बना कर तथा उसमें जौ के समान छोटी-सी प्रतिमा विराजमान करके भगवान की पूजा किया करता है तो समझना चाहिये कि मुक्ति इसके अत्यन्त समीप आ चुकी है।
0 यदि जिन-प्रतिमा का मुख पूर्व दिशा की ओर हो तो पूजा करने वाले को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पूजा करनी चाहिये । यदि प्रतिमा का मुख उत्तर दिशा की ओर हो तो पूजक को पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पूजा करनी चाहिये । दक्षिण दिशा की ओर वा विदिशा की ओर मुंह करके कभी पूजन नहीं करना चाहिये ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ
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