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समय तक आवश्यकतानुसार छोटे क्षेत्र की मर्यादा करना 'देशव्रत' है, जिन क्रियाओं से बिना प्रयोजन व्यर्थ में पाप-अर्जन होता है उन कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्ड व्रत है । नियत समय तक पंच पापों का त्याग करके एक आसन से बैठकर या खड़े होकर सबसे रागद्वेष छोड़कर आत्म-चिन्तन करना, बारह भावनाओं का चिन्तवन करना, जाप देना, सामायिक पाठ पढ़ना सामायिक है । अष्टमी और चतुर्दशी के दिन समस्त आरम्भ परिग्रह को छोड़कर खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेथ इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना तथा पहले और पीछे के दिन (सप्तमी, नवमी, त्रयोदशी पूर्णिमा) प्रोषध ( एकाशन एक बार भोजन करना प्रोषधोपवास है भोग्य (एक बार भोगने योग्य भोजन, तेल आदि पदार्थ) तथा उपभोग्य (अनेक बार भोगने योग्य पदार्थ - वस्त्र, आभूषण, मकान, सवारी आदि) पदार्थों का अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण करके शेष अन्य सबका त्याग करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। अपने यहां आने की तिथि ( प्रतिपदा, द्वितीया आदि दिन ) जिनकी कोई नियत नहीं होती, ऐसे मुनि, ऐलक, क्षुल्लक आदि अतिथि व्रती पुरुषों को भक्तिभाव से तथा दीन-दुःखी दरिद्रों को करुणा भाव से एवं साधर्मी गृहस्थों को वात्सल्य भाव से भोजन कराना, ज्ञान-दान, औषधदान तथा अभयदान करना अतिथि संविभाग व्रत है ।
शुभकर्म के अभाव में धन नहीं मिलता, यदि धन मिल आए तो सत्पात्र नहीं मिलता, यदि सत्पात्र मिल जाए तो पात्र दान करने की प्रेरणा करने वाले सहायक व्यक्ति नहीं मिलते । यदि पुत्र, स्त्री, मित्र आदि दान करने में अनुकूल सहायक भी मिल जाएं तो फिर सत्पात्रों को दान करने से अनन्त चतुष्टय प्राप्त होने में क्या सन्देह है ? अर्थात् कुछ नहीं ।
D सत्याओं को आहार दान करने से महान् अभ्युदय प्राप्त होता है। जिस तरह निर्दोष भूमि में बीज डालने से फल अवश्य मिलता है, इसी तरह भव्य द्वारा सत्पात्र को दिया हुआ दान अवश्य मोक्ष फल देता है ।
D दान चार प्रकार का होता है-आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, अभयदान ।
आहार दान - जिस प्रकार वैद्य रोगियों की प्रकृति वा उदराग्नि को जानकर और योग्य औषधि वगैरह देकर उनकी रक्षा करते हैं, जिस तरह किसान अपने खेत की रक्षा करते हैं, ग्वाले दूध के लिए गाय की रक्षा करते हैं, एवं राजा जिस तरह अपने राज्य की रक्षा करते हैं, उसी तरह धर्मात्मा लोग आहार दान द्वारा धर्म की तथा मुनि आदि धर्मात्माओं की रक्षा करते हैं ।
औषध दान - रोग दूर करने के लिए शुद्ध औषधि प्रदान करना औषधंदान है। मुनि आदि व्रती पुरुषों के रोग निवारण के लिए उनकी प्रामुक औषध आहार के समय देना चाहिये, भोजन भी ऐसा होना चाहिए जो रोगबुद्धि में सहायक न होकर रोग शान्त करने में सहायक हो । अन्य दीन-दुःखी जीवों का रोग दूर करने के लिए करुणा भाव से उनके लिए बिना मूल्य औषत्र बांटना, औषधालय बोलना, बिना कुछ लिये 'चिकित्सा करना औषधदान है।
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ज्ञान दान मुनि व्रती त्यागी पुरुषों को स्वाध्याय करने के लिए शास्त्र प्रदान करना, ज्ञानाभ्यास के साधन जुटाना तथा सर्वसाधारण जनता के लिए पाठशाला स्थापित करना, स्वयं पढ़ना, प्रवचन करना, उपदेश देना, जिनवाणी का उद्धार करना, पुस्तकें बांना ज्ञान दान है ।
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अभय दान --मुनि आदि अनगार व्रतियों के ठहरने के लिये नगर के बाहरी प्रदेशों, वन, पर्वतों में तथा नगर, में मठ बनवाना, जिससे कि जङ्गली जीवों से सुरक्षित रहकर वे ध्यान आदि कर सकें । आगन्तुक विपत्ति से उनकी रक्षा करना तथा साधारण जनता के लिए धर्मशाला बनवाना, विपत्ति में पड़े हुए जीव का दुःख मिटाना, भयभीत प्राणियों का भय मिटाना आदि अभयदान है ।
D संसार में एक आत्मा ही सारभूत है और शरीर निस्सार है। ऐसी निश्चल बुद्धिपूर्वक भावना से शरीर को त्यागने वाला व्यक्ति धीर पुरुष है ।
हे जीवात्मन् ! तू रात दिन अज्ञानवश अन्न-पानादिक खाद्य पेय पदार्थों का ध्यान करके अपनी आत्मा का अधपतन न कर, किन्तु सारतर परम सौख्य सुधारस भरित आत्म-तत्त्व का ध्यान कर ।
अपने मन को बाह्य विषय वासनाओं में न घुमाकर सदा अपने उपयोग में स्थिर करके निराबाध केवल ज्ञान होने पर्यन्त
स्थिर रहो ।
[D] हे भव्य जीव ! मन वचन काय की प्रवृत्ति बाहर की ओर से हटाकर अन्तर्मुख करो, तथा अपने चैतन्य भाव को ग्रहण करो। ऐसा किये बिना संसार की परम्परा नहीं टूटती ।
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आचार्यशन भी देशभूषण जी महाराज अभिन
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