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मनुष्य धन की आशा में दौड़ता फिरता है किन्तु शुभ कर्म के बिना वह हाथ नहीं आता। यदि वह आशा की मात्रा घटा कर शुभ कार्य करता जाए तो लक्ष्मी स्वयं उसके पैरों पर लोटने लगेगी।
हम अपनी आत्मनिधि को भूल चुके हैं और उस भौतिक धन को पाने के लिये लालायित हो रहे हैं जो कि न तो आत्मा के साथ रहा और न कभी रहेगा । धन की आशा मनुष्य को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर नहीं रहने देती। जिसके पास कुछ नहीं है वह कुछ सौ रुपये चाहता है। जब उसके पास सैकड़ों हो जाते हैं तब बह हजारपति बनना चाहता है । हजारपति हो जाने पर भी उसको सन्तोष नहीं होता तब वह लखपति बनना चाहता है। सौभाग्य से यदि वह लखपति बन जावे तब भी उसकी आशा शान्त नहीं होती और वह कोटिपति बनने की आशा में चिन्तातुर हो उठता है।
एक नगर में एक धनिक सेठ रहता था। उसके पास काफी धन था, फिर भी उसकी इच्छा बढ़ती ही जाती थी जिससे रातदिन धन संचय में लगा रहता था, आराम से न भोजन करता था, न कुछ समय अपने परिवार के साथ बिताता था, न आराम से सोता था।
उसके पास में एक सन्तोषी ब्राह्मण रहता था जो कि केवल एक दिन की भोजन-सामग्री संचित रखता था । एक दिन सेठ के घर अच्छा भोजन बना । रात को कुछ भोजन अपने पड़ोसी ब्राह्मण के घर भेजा, किन्तु ब्राह्मण ने यह कह कर भोजन लौटा दिया कि मेरे घर कल के लिये भोजन-सामग्री रक्खी हुई है।
सेठानी ने सेठ से ताना मारते हुए कहा कि देखो ब्राह्मण की सन्तोष वृत्ति को और अपनी आशा तृष्णा को। सेठ ने उत्तर दिया कि ब्राह्मण निन्यानवें (EE) के फेर में आकर सब सन्तोष भूल जाएगा। ऐसा कह कर सेठ ने एक रुमाल में ६६ रुपये बांध कर चुपचाप ब्राह्मण के आंगन में डाल दिये।
ब्राह्मण जब सवेरे उठा तो उसने ९६ रुपये की पोटली अपने आंगन में पड़ी पाई । रुपये देखकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ उसने ब्राह्मणी से कहा कि किसी तरह अधिक परिश्रम करके एक रुपया और कमाऊगा जिससे ये १००) रुपये हो जाएंगे। यह सोच कर उसने कुछ अधिक दौड़-धूप करके ६६) से १००) कर लिये। फिर उसने सोचा कि सौ रुपये ठीक नहीं होते इन्हें सवा सौ करना ठीक रहेगा । यह सोच कर अपने आराम का समय कम करके और अपने भोजन में से बचत करके उसने कुछ दिन में सवा सौ रुपये कर दिये। फिर उसने विचार किया ये रुपये २५०) होने चाहियें। तब सवा सौ रुपये और जोड़ने में तन्मय हो गया ।
इस तरह ब्राह्मण पर आशा और लोभ का भूत ऐसा सवार हुआ कि वह सेठ से भी अधिक धन संचय में लग गया। समय पर भोजन करना, सोना, विश्राम करना सब कुछ भूल गया। तब सेठानी से सेठ बोला कि देखा निन्यानवें रुपये का फेर, ब्राह्मण की सन्तोषवृत्ति कहां चली गई ?
____ इसी प्रकार सारी जनता धन संचय के चक्कर में न कुछ धर्मध्यान करती है, न परोपकार में कुछ समय लगाती है, न पर्याप्त विश्राम करती है। रात-दिन लोभ की चक्की चलाते-चलाते अपना अमूल्य समय नष्ट कर देती है। जीवन समाप्त हो जाता है किन्तु आशा समाप्त नहीं होती।
मनुष्य-जीवन में जीवन के मूल्यवान् क्षण यदि सफल करने हैं तो आशा के दास मत बनो ! प्रभात होते ही सबसे पहले भगवान का दर्शन करो, पूजन करो, स्वाध्याय, सामायिक करो, फिर शुद्ध भोजन करके न्याय नीति से व्यापार, उद्योग आदि करो। भाग्य पर विश्वास रक्खो, भाग्य से अधिक एक कौड़ी भी न मिलेगी। अत: नियत समय पर धर्म-साधन, भोजन, व्यापार, विश्राम आदि सारे कार्य करो। धर्म-आराधन, परोपकार, दान, दीन-दुःखियों की सेवा करने से व्यापार में धन-संचय में सफलता मिलती है। लोभ
संसार में प्रायः सब चीजों की सीमा है । पृथ्वी की सीमा है, समुद्र की सीमा है, पर्वत की सीमा है, लोक और आकाश की भी सीमा है। भूख लगती है तो वह भी किसी सीमा तक रहती है । भोजन कर लेने पर तृप्त हो जाती है। उसके बाद कुछ नहीं खाया जाता । प्यास लगती है, पानी पी लेने पर शान्त हो जाती है। उसके बाद पानी पीने की इच्छा नहीं रहती। हम किसी अनदेखी वस्तु को देखना चाहते हैं, जब उसको खूब अच्छी तरह देख लेते हैं, तो फिर उधर से चित्त हट जाता है। किसी उपदेश, भाषण या गायन सुनने की इच्छा होती है तो उस भाषण या गायन को सुन लेने पर कान तृप्त हो जाते हैं। इसी तरह अन्य इन्द्रियों के विषय भी भोग लेने पर कुछ सीमा तक शान्त हो जाते हैं।
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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