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अथवा राष्ट्र क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह-वृत्ति के कारण। दूसरों के जीवन में सुख-साधनों की उपेक्षा कर मनुष्य कभी भी सुखशान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । अहिंसा के बीज अपरिग्रह-वृत्ति में ही ढूंढे जा सकते हैं। एक अपेक्षा से कहें, तो अहिंसा और अपरिग्रह वृत्ति दोनों पर्यायवाची शब्द हैं ।
___ आत्म-रक्षा के लिये उचित प्रतिकार के साधन जुटाना जैन धर्म के विरुद्ध नहीं है परन्तु आवश्यकता से अधिक सगृहीत एवं संगठित शक्ति अवश्य ही संहार-लीला का अभिनय करेगी, अहिंसा को मरणोन्मुखी बनाएगी । अतएव आश्चर्य न करें कि पिछले कुछ वर्षों में जो शस्त्र-संन्यास का आन्दोलन चल रहा था, प्रत्येक राष्ट्र को सीमित युद्ध-सामग्री रखने को कहा जा रहा था, उसे तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो काम कानून द्वारा, पारस्परिक विधान के द्वारा लिया जाता है, उन दिनों वह उपदेशों द्वारा लिया जाता था। भगवान महावीर ने बड़े-बड़े राजाओं को जैन-धर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम दिया था कि वे राष्ट्र-रक्षा के काम में आनेवाले शस्त्रों से अधिक संग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उद्दण्ड बना देता है। प्रभुता की लालसा में आकर वह कहीं न कहीं किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-संसार में युद्ध की आग भड़का देगा। इस दृष्टि से जैन-तीर्थकर हिंसा के मूल कारणों को उखाड़ने का प्रयत्न करते रहे हैं।
जैन तीर्थंकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। जहाँ अनेक धर्माचार्य साम्राज्यवादी राजाओं के हाथों की कठपुतली बन कर युद्ध के समर्थन में लगते आए हैं, युद्ध में मरने वालों को स्वर्ग का लालच दिखाते आए हैं, राजा को परमेश्वर का अंश बताकर उसके लिए सब कुछ अर्पण करने का विचार करते आए हैं, वहाँ जैन तीर्थंकर इस सम्बन्ध में काफी कट्टर रहे हैं। प्रश्न, व्याकरण
और भगवती सूत्र युद्ध के विरोध में क्या कहते हैं ? यदि थोड़ा-सा कष्ट उठाकर देखने का प्रयत्न करेंगे तो बहुत कुछ युद्ध विरोधी विचार-सामग्री प्राप्त कर सकेंगे। आप जानते हैं, मगधाधिपति अजातशत्रु कुणिक भगवान् महावीर का कितना अधिक उत्कृष्ट भक्त था । औपपातिक सूत्र में उसकी भक्ति का चित्र चरम सीमा पर पहुंचा दिया है। प्रतिदिन भगवान् के कुशल समाचार जानकर फिर अन्न जल ग्रहण करना, कितना उग्र नियम है। परन्तु वैशाली पर कुणिक द्वारा होने वाले आक्रमण का भगवान् ने जरा भी समर्थन नहीं किया, प्रत्युत् नरक का अधिकारी बताकर उसके पाप-कर्मों का भण्डाफोड़ कर दिया। अजातशत्रु इस पर रुष्ट भी हो जाता है। किन्तु भगवान् महावीर इस बात की कुछ भी परवाह नहीं करते । भला पूर्ण अहिंसा के अवतार रोमांचकारी नर-संहार का समर्थन कैसे कर सकते थे?
जैन तीर्थंकरों की अहिंसा का भाव आज की मान्यता के अनुसार निष्क्रियता का रूप भी न था। वे अहिंसा का अर्थ प्रेम, परोपकार, विश्व-बन्धुत्व करते थे । स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो । जैन तीर्थकरों का आदर्श यहीं तक सीमित न था। उनका आदर्श था दूसरों के जीने में मदद करो, बल्कि अवसर आने पर ऐसे जीवन को कोई महत्त्व न देते थे, जो जन-सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रह कर एकमात्र भक्तिवाद के अर्थ (शून्य क्रिया-काण्डों) में ही उलझा रहता हो ।
भगवान् महावीर ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन-दुखियों की सेवा करना कहीं अधिक श्रेयस्कर है । मैं उन पर प्रसन्न नहीं, जो मेरी भक्ति करते हैं, माला फेरते हैं, बलिक मैं तो उन पर प्रसन्न हूं, जो मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। मेरी आज्ञा है-प्राणीमात्र को सुख-सुविधा और आराम पहुंचाना। भगवान् महावीर का महान् ज्योतिर्मय सन्देश आज भी हमारी आंखों के सामने है। उस सन्देश का सूक्ष्म बीज यदि हममें से कोई देखना चाहे तो उत्तराध्ययन सूत्र की सर्वार्थ सिद्धि वृत्ति में देख सकता है।
अहिंसा के अग्रगण्य संदेशवाहक भगवान् महावीर हैं। आज तक उन्हीं के अमर सन्देशों का गौरव-गान गाया जा रहा है। आपको मालूम है कि आज से ढाई हजार वर्ष पहले का समय भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक महान् अन्धकारपूर्ण युग माना जाता है । देवी-देवताओं के आगे पशु-बलि के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती थीं, और सुरापान का दौर चलता था। अस्पृश्यता के नाम पर करोड़ों की संख्या में मनुष्य अत्याचार की चक्की में पिस रहे थे। स्त्रियों को भी मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। एक क्या, अनेक रूपों में सब ओर हिंसा का विशाल साम्राज्य छाया हुआ था किन्तु भगवान् महावीर ने उस समय अहिंसा का अमृतमय सन्देश दिया जिससे भारत की काया पलट गई । मनुष्य राक्षसी भावों से हटकर मनुष्यता की सीमा में प्रविष्ट हुआ। क्या मनुष्य, क्या पशु सबके प्रति उसके हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। अहिंसा के सन्देश ने सारे मानवीय सुधारों के महल खड़े कर दिए । दुर्भाग्य से आज वे महल गिर रहे हैं । जल, थल, अभी-अभी खून से रंगे जा चुके हैं, और भविष्य में इससे भी भयंकर रंग में रंगने की तैयारियां हो रही हैं । तीसरे महायुद्ध का दुःस्वप्न अभी देखना बन्द नहीं हुआ है। परमाणु बम के
अमृत-कण
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