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दर्शन, पूजन, सामायिक, स्वाध्याय आदि धर्म-क्रिया करनी चाहिये। फिर व्यापार आदि धन-उपार्जन का कार्य करना चाहिये । रात्रि में गुणी धार्मिक सन्तान के उत्पादन के लिये काम पुरुषार्य करना चाहिये । रजस्वला के समय, रोगी दशा में, अष्टान्हिका, दशलाक्षणी, अष्टमी व चतुर्दशी को तथा गर्भाधान के बाद पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये, शेष दिनों में भी अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य का यत्न करना चाहिये । ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान् तेजस्वी होता है, सन्तान गुणवान् होती है, तथा दीर्घ आयु होती है। अतः अपनी स्त्री को शिक्षित बनाकर धर्मात्मा बनाना चाहिये। धार्मिक स्त्री के कारण सारे परिवार को शुद्ध भोजन मिलता है, तथा परिवार में धर्म-आचरण बना रहता है।
रहने को अच्छा घर हो जिसमें खुला प्रकाश, वायु तथा धूप आती हो, जिसमें धुआं न भर जाता हो, सीलन न रहती हो। घर ऐसे स्थान पर हो जहां आस-पास में शराबी, मांस-भक्षक, जुआरी, लुच्चे, चोर, गुण्डे, बदमाश न रहते हों। सद्गृहस्थों का पड़ोस हो । धार्मिक व्यक्ति को बुरे कार्य करने में संकोचशील होना चाहिये। निर्लज्ज मनुष्य निन्दनीय कार्य करते संकोच नहीं करता, अतः उसकी सब जगह निन्दा होती है। धर्मात्मा मनुष्य को अपना खान-पान, आहार-विहार शुद्ध सात्त्विक रखना चाहिये । अभक्ष्य पदार्थ, नशीली चीजें, रोग पैदा करने वाली वस्तुयें न खानी चाहिये।
सदा सज्जन पुरुषों की संगति करनी चाहिये । दुर्जन, दुर्गण, मूर्ख, व्यसनी पुरुषों की संगति से सदा दूर रहना चाहिये। मनुष्य के आचार व्यवहार पर संगति का बहुत भारी प्रभाव पड़ता है। कुसंगति मनुष्य को वर्वाद कर देती है और सत्संगति से मनुष्य का उद्धार हो जाता है । अतः सदा सज्जन पुरुषों के समागम में रहना चाहिये।
सन्तान-शिक्षण
यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता जायगा। ये जगत्वर्ती समस्त जड़-चेतन पदार्थ भी अनादि काल से चले आ रहे हैं और वे सभी अनन्त काल तक बने रहेंगे। न तो उनमें परमाणु मात्र कम होगा और न उनमें परमाणु मात्र कोई पदार्थ नवीन ही उत्पन्न होगा ; जितने हैं उतने ही रहेंगे । फिर भी प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के अनुसार प्रतिसमय परिणमन करता रहेगा; सदा एक ही दशा में न रहेगा। जो दशा पदार्थ की एक क्षण पहले होती है, वह दूसरे क्षण में नहीं रहने पाती और जो दशा दूसरे क्षण में होती है वह तीसरे क्षण में नहीं रहती। यानी-पर्याय प्रतिक्षण नवीन होती जाती है। यह प्रतिक्षण का परिणमन कोई अन्य व्यक्ति करने नहीं आता, काल द्रव्य की सहायता से प्रत्येक पदार्थ स्वयं उस तरह परिणमन करता है।
इस तरह प्रत्येक पदार्थ अविनाशी, शाश्वत होता हुआ भी उसकी दशा सदा प्रतिक्षण परिणमनशील है । इस तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, प्रति समय सभी पदार्थों में होता रहता है। यही कारण है कि जीव अविनाशी अजर-अमर है, वहां वह सदा परिवर्तनशील भी है। तदनुसार जगत् में कोई भी जीव ऐसा नहीं जो कि किसी विशेष समय उत्पन्न हुआ हो। किन्तु कोई भी जीव ऐसा नहीं जो अनादि काल से अब तक एक सी ही दशा में चला आया हो। मनुष्यों की तथा विभिन्न थलचर, जलचर, नभचर पशु-पक्षियों की सत्ता जैसे करोड़ों वर्ष पहले थी उसी तरह आज भी है, परन्तु वे सन्तान परम्परा से ही मौजूद हैं, वैसे के वैसे नहीं हैं। जैसे बीज-वृक्ष की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है, इसी तरह पिता-पुत्र की परम्परा भी अनादि काल से चली आ रही है।
पिता के संस्कार, गुण, अवगुण उसकी सन्तान में आया करते हैं । तदनुसार भगवान् ऋषभनाथ की धर्म-परम्परा अभी तक चली आ रही है। पुत्र अपने पिता की छाया-अनुरूप होता है । अनः पिता जिस धर्म का अनुयायी होता है, प्रायः पुत्र भी उसी धर्म का आचरण करता है । इस तरह सन्तान अपने पिता की विरासत को सुरक्षित रखकर आगे चलती रहती है।
जिस तरह अच्छा वृक्ष उत्पन्न करने के लिये अच्छा बीज और अच्छी भूमि की आवश्यकता होती है, उसी तरह अच्छा तेजस्वी, गुणी, बुद्धिमान पुत्र उत्पन्न करने के लिये अच्छे बीज तथा अच्छी भूमि की आवश्यकता है। वीर्य बीज रूप है और माता का गर्भाशय भूमि के अनुरूप है। तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महान् पराक्रमी पुत्रों को उत्पन्न करने वाले माता-पिता भी असाधारण व्यक्ति होते थे। श्री मानतुङ्गाचार्य ने भक्तामरस्तोत्र में कहा है
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ
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