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चिन्तन के विविध आयाम'
- आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज
योगामृत शुद्ध परमात्मा हमारे भीतर अनादि काल से निवास करता है। एकाग्रता से ध्यान करने पर वह सिद्ध परमात्मा अपने अन्दर मिलेगा, अन्य जड़ रूप परद्रव्य में नहीं ।
D यह संसारी आत्मा परद्रव्य के सम्बन्ध से जब छूटता है, उसी समय सिद्ध क्षेत्र में जाकर विराजमान हो जाता है । मुक्त आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन स्वरूप से युक्त अनन्त अतीन्द्रिय सुख को भोगता है। शुद्ध चेतना के प्रगट होने से यह जीव त्रिकाल - वर्ती समस्त पदार्थों को एक ही समय में प्रत्यक्ष जान लेता है ।
सिद्ध भगवान् जन्म, जरा, मरण से रहित हैं। कर्मों से छूट गए हैं। सर्व व्यापार व चार गति में जाने-आने के प्रपंच से शून्य हैं। मलरहित निरंजन हैं। उपमारहित हैं। आठ परम गुण सहित हैं। अनन्त गुणों के पात्र हैं । परावलम्बन से रहित हैं। अच्छेद्य हैं। अभेद्य हैं। आनन्दमय परमात्मा हैं ।
[ अनादि काल से यह आत्मा बाह्य वस्तु में रमण करते हुए विविध विषय कषाय के आधीन होता हुआ अनेक प्रकार के कष्ट उठाता आ रहा है। शरीर आदि बाह्य पदार्थों में इस जीव को सुख और शान्ति मिलती है। बाह्य वस्तु में ही सुख मानकर सांसारिक प्राणी अपना जीवन बिता रहा है। संसार में वह अनेक वस्तुओं का परिचय करता आया; परन्तु शुद्ध सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, जो निज स्वभाव है, उस स्वभाव का बिल्कुल भी उस जीव को परिचय नहीं हुआ। यह निजी स्वरूप सम्पूर्ण वस्तुओं से भिन्न है, निर्विकार है, निर्मल है, शुद्ध है, अनेक गुणों से परिपूर्ण है। इतना होने पर भी यह जीव इसकी ओर दृष्टि न रखते हुए बाह्य पदार्थ में दृष्टि डालकर, उसी को अपना मान कर उसमें रमण कर रहा है।
अध्यात्म तत्त्व को जानने से, मनन करने से तथा रुचिपूर्वक ग्रहण करने से कर्मों का नाश होता है ।
[ पूर्वबद्ध कर्मों का तप द्वारा दूर होते जाना निर्जरा और सब कर्मों का अभाव होना मोक्ष कहलाता है ।
जब तक आत्म-तत्त्व को जानकर उसके प्रति रुचि न होगी तब तक उससे भिन्न पदार्थों को आत्मा से अलग नहीं कर सकते । इसीलिए इस तत्त्व को भली प्रकार जानने के लिए सद्गुरु के समाधान की आवश्यकता है।
D आत्मा के अशुभ परिणामों से समस्त पाप-बन्ध होता है। शुभ परिणामों से शुभ कर्म-बन्ध होता है, राग-द्वेष रहित शुद्ध भावों से मोक्ष होता है ।
जिस प्रकार चारों दिशाओं में फैला हुआ अन्धकार सूर्य की किरणों से विलीन हो जाता है, उसी प्रकार निष्कषाय शान्त मन एवं एकाग्र चित्त से आत्म-तत्त्व का चिन्तन करने से सम्पूर्ण कर्म-समूह नष्ट हो जाते हैं।
D अपने आत्म-चितवन को पिंडस्थ ध्यान कहते हैं; समस्त चित्तस्वरूप के चितवन करने को रूपस्थ ध्यान कहते हैं; कर्म मल से रहित परमात्मा के चितवन करने को रूपातीत ध्यान कहते हैं। स्फटिक मणि के पात्र में स्वभाव से प्रकाशित होने वाली चन्द्रमा की ज्योति के समान अपने हृदय कमल में चमकने वाले सच्चे आत्मरूप को अपने हृदय में देखना या उसी का ध्यान करना पिंडस्थ ध्यान कहलाता है । द्वादश गणों से युक्त समवशरण में विराजमान होकर बारह करोड़ सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक शरीर की कांति से सुशोभित होने वाले अरहन्त परमात्मा के स्वरूप को अपने मन में स्थिर करके चिन्तन करना रूपस्थ ध्यान है। सहज सुख, सहज ज्ञान, सहज ही होने वाले आत्म-दर्शन को मन में स्थिर कर सहज प्रेम रूप से अपने भीतर आप ही स्थिर होकर अपने आत्मा का ध्यान करना - यही सम्पूर्ण पाप को नाश करने वाला रूपातीत ध्यान है ।
5 पंच परमेष्ठियों का णमोकार मन्त्र अनन्तानन्त जन्मों में उपार्जन किए हुए सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला है और १. आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज के विभिन्न ग्रन्थों में से डॉ० वीणा गुप्ता तथा कु० रेखा गोयल द्वारा संकलित ।
अमृत-कण
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