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अभिमान में आकर भी मनुष्य दूसरों को अपमानकारक असह्य वचन कह डालता है जिससे सुनने वाला यदि शक्तिशाली मनुष्य होता है तो वह भी उत्तर में उनसे भी अधिक अपमानकारक वचन कह डालता है। यदि सुनने वाला व्यक्ति कमजोर दीन-दुःखी. होता है तो उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, उसको मार-पीट से भी अधिक दुःख होता है। तलवार का घाव तो मरहम-पट्टी से अच्छा हो जाता है किन्तु वचन का घाव अच्छा नहीं होता।
द्रौपदी ने दुर्योधन को व्यङ्गरूप से इतना कह दिया था कि 'अन्धे (धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन का पिता) का पुत्र भी अन्धा है।' यह बात दुर्योधन को लग गई और इसका बदला लेने के लिए उसने जुए में पांडवों से द्रौपदी को जीतकर अपनी सभा में अपमानित किया। उसकी साड़ी उतार कर सबके सामने उसने द्रौपदी को नंगा करना चाहा। इसी असह्य अपमान का बदला लेने के लिए कौरव पांडवों का महायुद्ध हुआ जिसमें दोनों ओर की बहुत हानि हुई, सभी कौरव योद्धा मारे गये।
इस तरह अन्य व्यक्ति को दुःखकारक, निन्दाजनक पापवचन भी असत्य में सम्मिलित हैं। इस कारण सत्यवादी मनुष्य को । ऐसे वचन भी मुख से उच्चारण न करने चाहिये।
आचार्यों ने असत्य वचन ६ प्रकार के बतलाये हैं
१. मौजद चीज़ को गैर मौजूद कहना । जैसे घर में नेमिचन्द बैठा है, फिर भी बाहर द्वार पर किसी ने पूछा कि 'नेमिचन्द है ?' तो उत्तर में कह दिया कि 'वह यहां नहीं है।'
२. गैर मौजूद वस्तु को मौजूद बतला देना । जैसे नेमिचन्द घर में नहीं था फिर भी किसी ने पूछा कि नेमिचन्द घर में हैं क्या ? तो उत्तर में कह दिया कि 'हां, घर में हैं।'
३. कुछ का कुछ कह देना । जैसे घर में विमलचन्द था । किसी ने पूछा कि घर में कौन है तो उत्तर में कह दिया कि यहां नेमिचन्द है।
४. गहित-दूसरे को दु:खदायक हँसी-मजाक करना, चुगली खाना, गाली-गलौज देना, निन्दाकारक बात कहना । जैसे—तेरे कुल में बुद्धिमान कोई हुआ ही नहीं, फिर तू मूर्ख है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ।
५. सावद्य-पापसूचक या पापजनक शब्द उच्चारण करना। जैसे-तेरा मिर धड़ से अलग कर दूंगा, तुझे कच्चा खा जाऊंगा । तेरे घर-बार को आग लगा कर तुझे जीवित जला दूंगा।
६. अप्रिय-दूसरे जीवों को डराने वाले, द्वेष उत्पन्न करने वाले, क्लेश वाले, क्लेश बढ़ाने वाले, विवाद बढ़ाने वाले, क्षोभजनक शब्द कहना । जैसे-निर्दय डाकुओं का दल इधर आ रहा है । वह सारे गांव को लूट-मार कर जला देगा ।
ऐसे वचनों से कभी-कभी बड़ी अशान्ति और महान् अनर्थ फैल जाता है । झूठ बोलने वाले मनुष्य के वचन पर किसी को विश्वास नहीं रहता। अतः वह कभी सत्य भी बोले तो भी सुनने वाले उसे असत्य ही समझते हैं।
एक गांव में एक धनवान बुड्ढा रहता था। उसके परिवार में उसके सिवाय और कोई न था। एक समय रात को वह झूठ मूठ चिल्लाया कि 'मेरे घर में चोर आ गये हैं, जल्दी आकर मुझे बचाओ।'
पड़ोस के आदमी उसका चिल्लाना सुनकर उसके घर पर दौड़े आये तो उनको देखकर बूढ़ा हंस कर बोला कि मैं आप लोगों की परीक्षा लेने के लिये झूठ-मूठ चिल्लाया था, चोर-चोर कोई नहीं आया।
कुछ दिन पीछे फिर उसने ऐसा ही किया। दूसरी बार भी लोगों ने बूढ़े की बात सत्य समझी और इसी विचार से वे बचाने के लिये उसके घर पर दौड़े आये । किन्तु वहां आकर वही बात देखी कि बुड्ढे ने अपना जी बहलाने के लिये उन सब को व्यर्थ हैरान किया है। यह देखकर लोगों को बहुत बुरा मालूम हुआ। सब चुपचाप अपने घर लौट गये।
संयोग से एक रात को सचमुच ४-५ चोर उस धनी बूढ़े के घर घुस आये। उनको देखकर बूढ़ा अपनी रक्षा के लिए बहतेरा गला फाड़ कर चिल्लाता रहा परन्तु सब पड़ोसियों ने उसकी बात झूठ ही समझी। इस कारण एक भी पड़ोसी उसकी रक्षा करने के लिये उसके घर नहीं पहुंचा। चोरों ने बुड्ढे को मार-पीट कर उसका सारा धन उससे मालूम कर लिया और सब धन लेकर बूढ़े का भी गला घोंट कर वहां से चले गये।
एक झूठी बात को सत्य सिद्ध करने के लिये मनुष्य को और बीसों असत्य बातें बनानी पड़ती हैं, जिससे एक असत्य पाप के साथ अन्य अनेक पाप स्वयं हो जाते हैं और यदि असत्य का त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य से अन्य अनेक पाप भी स्वयमेव छूट जाते हैं। इस कारण सत्य धर्म आत्म-हित के लिये बहुत उपयोगी है।
अमृत-कण
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