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'धन्य ! धन्य !! धन्य !!! हे श्रेष्ठिवर ! इस तरह सब जीवों को कल्याणमय उपदेश देने वाले ये मुनिवर कौन हैं ?' 'महानुभाव! ये हैं बालब्रह्मचारी, तपश्रेष्ठ, सरस्वतीपुत्र, अनासक्त कर्मयोगी, राष्ट्रसन्त श्रीदेशभूषण आचार्यवर!' 'हे सज्जन ! कृपा कीजिए। बतलाइए, कैसे ये महान् आचार्य बने ?' 'उनका जीवनकार्य वर्णन करने में मेरी वाणी असमर्थ है। तो भी संक्षेप से मैं उनका दिव्य जीवन बताता हूँ। गौर से
सुनिए ।'
कर्नाटक प्रान्त के कोथलग्राम में एक चतुर्थ जैन परिवार रहता था। वहाँ का मुखिया था सुश्रावक सत्यगौडा। उसकी आकाम्बा नाम की पतिपरायण और शीलवती पत्नी थी। उसने एक शुभ अवसर पर उत्तम लक्षणों से युक्त पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम बालगौडा रखा गया। तीन महीने में बालक की माता गुजर गई। बचपन में ही पिता गुजर गया। तब उसकी दादी पद्मावती ने बालगोडा का बड़े ममत्व से पालन किया । उस पर वह संस्कार करती रही ।
बालगौडा बुद्धिमान था। वह मराठी और कानड़ी भाषा में निपुण हो गया ।
एक समय वर्षावास के लिए श्री जयकीति मुनिवर कोथलग्राम में पधारे। बालगौडा ने मुनि के पास जिनागम का अध्ययन किया। उसका मन धर्मभावना से प्रभावित हुआ। वह मुनिवर के साथ श्रीसम्मेदशिखरयात्रा जाना चाहता था। लौटने पर बालगौडा विवाह करेगा, इस आशा से पद्मावती ने उसे बड़े कष्ट से तीर्थयात्रा जाने के लिए विदा दी।
उस महातीर्थ दर्शन से तीर्थंकरों के दिव्य जीवन से प्रभावित होकर बालगोडा विरक्त हो गया। युवा मन के मत्त जीवन के अठारह साल की उम्र में बालगौडा ने श्री पारसनाथ चोटी पर श्री जयकीति के अनुग्रह से ब्रह्मचर्य धारण किया।
चतुर्विध संघ के साथ विहार करते श्री जयकीर्ति मुनिवर कुंथलगिरि तीर्थ पधारे। वहाँ ब्रह्मचारी बालगौडा मुनिवर की शरण में दीक्षा पाकर दिगम्बर मुनि बन गए। तब उनका श्री देशभूषण नाम रखा गया। चतुर्विध संघ विहार करता श्रवणबेलगोल पधारा । वहाँ भगवान् बाहुबलि की सुमनोहर, भव्य तथा प्रचण्ड मूर्ति के दर्शन से श्री देशभूषण मुनिवर परम भक्ति से गोमटेश्वर का स्तवन करने लगे।
....जो दिगम्बर, भयमुक्त, (वल्कलादि) वस्त्रों के बारे में अनासक्त, (रागद्वेषरहित) विशुद्ध और सर्प आदि जन्तुओं के दंश से (भी) विचलित नहीं होते; ऐसे (महायोगी) गोमटेश्वर की मैं (भक्तिश्रद्धा से) वन्दना करता हूं।....
अब श्री देशभषण फिर से तीर्थयात्रा जाना चाहते थे। मुनिवर की अनुज्ञा लेकर वे एकाकी पैदल ग्रामानुग्राम विहार कर जाने लगे। रायचर, गुलमर्ग आदि नगरों में यवन, म्लेच्छादि लोगों ने मुनिवर की हंसी उड़ाकर उपसर्ग किया। श्री देशभूषण मुनिवर ने सब यातनाएँ परम शान्ति से सहन करके प्रसन्न चित्त से धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुनकर सब पश्चात्तापदग्ध होकर मनिवर को चाहने लगे । स्याद्वादकेसरि आचार्यप्रवर श्री पायसागर ने उनको आचार्य पद की दीक्षा दी।
आचार्यप्रवर श्री देशभूषण ने समग्र भारत में पैदल विहार किया । अध्ययन-चिन्तन से वे सिद्धान्तशिरोमणि बन गए। विविध भाषा पारंगत आचार्य श्री ने काफी ग्रन्थ-रचना की। मधुर वाणी से उपदेश कर उन्होंने सहस्राधिक नर-नारियों का उदार किया। कई स्थानों में सून्दर जिनालय बनवाये । आचार्यश्री ने जनहितार्थ धर्मशाला, पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय आदि खोले आचार्यश्री का जीवन ही जनहितार्थ है।'
'श्रेष्ठिवर, मुझे ऐसे महान् राष्ट्रसन्त के दर्शन हुए । मैं धन्य हैं।' 'महानुभाव ! आज आचार्यप्रवर जी का देशभूषण नाम चरितार्थ हुआ। वे नित्य विश्वधर्म का सन्देश देते हैं
'सब प्राणिमात्रों से मेरी मित्रता है, किसी से भी मेरी शत्रु ता नहीं है।'
१५.
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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