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अपना बचाव पूर्णतया असंभव है । यह अहिंसाणुव्रती कभी किसी के नाक-कान आदि अंगों का छेदन नहीं करेगा, उनको मजबूत बन्धनों से बांधकर किसी एक जगह रोककर नहीं रखेगा । उन्हें लकड़ो-पत्थर आदि से नहीं मारेगा, उनके ऊपर उनकी शक्ति से अधिक भार, बोझा, वजन नहीं लादेगा, उनको भूख और प्यास से पीड़ित नहीं करेगा, अथात् वह उन्हें समय पर खाना खिलायेगा और पानी भी पिलायेगा क्योंकि उसने अहिंसा (कष्ट पहुंचाने की चेष्टा और भावना का त्याग करना रूप अहिंसा) का प्रण यावज्जीवन के लिए ले रखा है।
सत्याणुवत-ऐसा वचन जिसके बोलने से अपना और दूसरों का घात होने की सम्भावना हो या जिसके सुनने पर लोगों में आपस में लड़ाई-झगड़ा, कलह और विसंवाद प्रारम्भ हो जाय ऐसे वचन स्वयं बोलने का और दूसरों से बुलवाने का त्याग करना सत्याणुव्रत है। ऐसा सत्याणुव्रती ऐसा सत्य नहीं बोलेगा और न बुलवायेगा, जिसके बोलने पर दूसरों का विनाश सम्भव हो। यह सत्याणुव्रती कभी किसी की निन्दा नहीं करेगा, शास्त्र-विरुद्ध झूठा उपदेश नहीं देगा, किसी की गुप्त बात या क्रिया को लोक में प्रकट नहीं करेगा, किसी की शारीरिक चेष्टा से उसके अन्तरंग के अभिप्राय को जानकर कषाय के वशीभूत हो दूसरों के सामने उसे प्रकट करने की चेष्टा सत्याणुव्रती कभी नहीं करेगा। जो बात या जो कार्य किसी ने किया नहीं है उसको अमुक ने ऐसी बात कही थी अथवा अमुक ने अमुक कार्य मेरे सामने किया था-ऐसा निराधार और अप्रमाणिक सर्वथा मिथ्यालेख सत्याणुव्रती कभी भी नहीं लिखेगा क्योंकि झूठी बातों और व्यवहारों का वह पहले ही त्याग कर चुका है। अगरचे कोई मनुष्य धरोहर के रूप में कोई रुपया पैसा सोना चांदी या आभूषण वगैरह रख जाय और कुछ समय के पश्चात् विस्मरण हो जाने से कम मांगने लग जाय तो उसे उसके कहे अनुसार कम देने की इच्छा नहीं करेगा, कम देना तो वस्तुतः दूर की बात है। इस प्रकार से सत्याणुव्रती का जीवन सत्य से ओतप्रोत रहता है।
अचौर्याणुवत-अचौर्याणुव्रती कभी किसी की कहीं पर रक्खी हुई, पड़ी हुई, भूली हुई, वस्तु को न तो स्वयं ग्रहण करेगा और न अपने हाथ से उठाकर किसी दूसरे को देगा क्योंकि उसने पर वस्तु के-उसके स्वामी के बिना दिये और बिना कहे-लेने का परित्याग कर दिया है । जैसे उस प्रकार की चीज स्वयं नहीं लेता है वैसे किसी दूसरे को देता भी नहीं है, यह उसका मुख्य व्रत है। ऐसा व्रती धर्मात्मा किसी चोर को चोरी के लिये प्रेरणा नहीं करेगा, उसे चोरी करने के उपाय नहीं बतायेगा, उसके द्वारा चोरी कर के लाये हुए सुवर्ण आदि पदार्थों को नहीं खरीदेगा, राजा के आदेशों के विरुद्ध कार्य नहीं करेगा, महसूल आदि को बिना चुकाये इधरउधर से माल को लाने की कोशिश भी नहीं करेगा, अधिक मूल्य की वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु जो उसके ही सामने है मिलाकर नहीं चलायेगा, अपने लेने का बाट-तराजू, गज-आदि तौलने और मापने के पदार्थों को अधिक और अल्प नहीं रखेगा, किन्तु राजा द्वारा तौलने और मापने के पदार्थों का प्रमाण जो निश्चित किया गया है उसी प्रमाण को रखेगा और उन्हीं से लेगा और देगा। ऐसा करते रहने से उसका लिया हुआ व्रत दृढ़ होगा ।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-इस व्रत का धारक और पालक व्रती जीव पाप के भय से न तो स्वयं पर-स्त्री का सेवन करेगा और न दूसरों से सेवन करायेगा किन्तु अपनी विवाहिता धर्मपत्नी में ही पत्नीत्व बुद्धि को धारण कर उसको ही सेवन करेगा और उसी में सन्तुष्ट रहकर अपनी राग-परिणति को क्रमशः कृश करता जायगा । ऐसा ब्रह्मचारी स्वदार-सन्तोषी होता है, वह अपने पुत्र-पुत्रियों को छोड़ कर दूसरों के पुत्र-पुत्रियों की शादी नहीं करेगा और न करायेगा, काम-क्रीड़ा के नियत अंगों से भिन्न अंगों के द्वारा काम-क्रीड़ा नहीं करेगा । अश्लील, अशिष्ट, अशोभनीय, उच्चता से गिराने वाले, रागवर्धक, नीचों द्वारा बोले जाने वाले, अश्रवणीय शब्दों को भी नहीं कहेगा। अपनी धर्मपत्नी में भी काम-सेवन की अधिक इच्छा नहीं रखेगा किन्तु सन्तानार्थ योग्य समय में ही काम-रत होगा, अन्य समय में नहीं । और जो स्त्री परपुरुषगामिनी, व्यभिचारिणी या दुराचारिणी है उससे अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं करेमा अर्थात् उसके घर जाना-आना, उससे वार्तालाप करना आदि व्यवहार नहीं करेगा । ऐसा स्वस्त्री-सन्तोषी ब्रह्मचर्याणुव्रती होता है।
परिप्रहपरिमाणाणुव्रत-हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दास-दासी-कुप्य, भाण्ड, क्षेत्र, वस्तु-इन दस प्रकार की चीजों का प्रमाण करके बाकी की चीजों को यावज्जीवन छोड़ना अर्थात् प्रमाण की हुई वस्तुओं से बची हुई चीजों के साथ व्यामोह का त्याग करना ही परिग्रह-परिमाण अणुव्रत है । ऐसा अणुव्रती आवश्यक प्रयोजनीभूत सवारियों से अधिक सवारियाँ नहीं रखेगा। आवश्यकताओं जरूरतों से अधिक चीजों का संग्रह भी नहीं करेगा क्योंकि जरूरत से ज्यादा चीजों के जोड़ने का मूल लोभ कषाय है, और लोभ कषाय परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का विरोधी है, अतएव परिमित वस्तुओं से अधिक को जोड़ने की भावना का त्याग करेगा। दूसरे विशेष पुण्यात्माओं के पुण्य के फलस्वरूप धन-धान्यादि सम्पत्ति की अधिकता को देख आश्चर्य या अचम्भा नहीं करेगा, अधिक लोभ
अमृत-कण
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