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शरीर से मोह कम करने के लिये भोजन में क्रमशः कमी करना शरीर-लेखना है। जैसे भोज्य पदार्थ त्याग कर दूध, छाछ, जल आदि पेय पदार्थ ही आहार में लेना, फिर क्रमशः उनमें भी दूध, छाछ आदि को छोड़ कर केवल जल ही रखना और अन्तिम समय निकट आता देख जल भी त्याग देना, यह शरीर लेखना का क्रम है।
अनेक निकटवर्ती तथा दूरवर्ती व्यक्तियों (सम्बन्धियों, मित्रों, चाकरों तथा शत्रु ओं) से समता भाव लाने के लिये उनसे मोह या द्वेष त्यागना, उनसे अपने ज्ञात-अज्ञात अपराधों की क्षमा मांगना तथा स्वयं उनको क्षमा कर देना, संसार के सब पदार्थों से मानसिक सम्बन्ध भी दूर कर देना, अपने शरीर के वस्त्रों, बिस्तरों, नीचे बिछी चटाई आदि चीजें भी क्रम से हटाते जाना कषाय लेखना है।
शरीर कृश करने का उद्देश्य यह है कि मृत्यु के क्षण में भूख-प्यास आदि से व्याकुलता या अशांति न होने पावे । भूख या प्यास को शान्ति से सहन करने का उत्कट अभ्यास हो जावे । कषाय कृश करने का अभिप्राय अपने संचित क्षमा, शान्ति, धैर्य, निर्वर, मार्दव आदि आत्मगुण सम्पत्ति की क्रोध, मोह, मद, माया आदि दुर्भावों से सुरक्षा करना है। यह आत्महत्या नहीं है
मनुष्य जब किसी क्रोध, लोभ, लज्जा, भय, शोक आदि के आवेश में आकर क्लेशित भावों से भूखा रहकर या फांसी लगाकर, नदी में कूद कर अथवा बिजली आदि द्वारा मृत्यु का आलिंगन करता है तब वह कायरतापूर्ण आत्म-हत्या होती है, क्योंकि मानसिक दुःख न सह सकने के कारण वह ऐसा करता है। किन्तु सल्लेखना में क्रोध, शोक, भय, क्षोभ आदि कोई दुर्भाव नहीं होता। आत्मसाधना में तन्मय होकर शान्ति और धैर्य से मृत्यु का स्वागत किया जाता है, अतः यह 'वीरमरण' है। प्रातःस्मरणीय श्री समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में लिखा है
उपसर्गे दुर्भिक्ष जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ किसी प्राण-घातक महान् उपद्रव के आ जाने पर या ऐसे महान् दुष्काल में फंस जाने पर जिसके सुरक्षित होने की आशा न रहे, अतिशय वद्ध अवस्था आ जाने पर, असाध्य रोग हो जाने पर, धर्मभावना, धर्मसाधना के साथ शरीर छोड़ना सल्लेखना हैऐसा सर्वज्ञ भगवान् के उपदेशानुसार आचार्य कहते हैं।
जिस तरह मकान में आग लग जाने पर प्रथम तो उस मकान का स्वामी उस आग को बुझाने का यत्न करता है, किन्तु जब उसे यह प्रतीत होता है कि आग बुझ न सकेगी उस समय वह घर में से सबसे अधिक मूल्यवान् पदार्थों को सुरक्षित ले जाने का प्रयत्न करता है जिससे कि वह दीन दरिद्र न बनने पाये, अपना भात्री जीवन सुख से बिता सके। इसी प्रकार धार्मिक व्यक्ति के ऊपर जब कोई प्राण-घातक महान् संकट आ जाता है तब वह पहले तो संकट को दूर करने की चेष्टा करता है, जब उसे यह विश्वास हो जाता है कि किसी भी तरह जीवन बच नहीं सकता, मृत्यु अवश्य होगी तब वह अपनी अन्तिम चेष्टा यह करता है कि अपने जीवन में मैंने जो व्रत, तप, त्याग, संयम द्वारा धर्मनिधि संचित की है, उसको बचा लूं जिससे कि वह शरीर के साथ नष्ट न हो जावे। क्योंकि उस धर्मनिधि के सुरक्षित रह जाने पर उसका अन्य भव सुखमय हो सकता है।
आयु-कर्म का बन्ध जीवन में आठ वार में से किसी भी वार योग्यता होने पर हो सकता है। उन आठ वारों का नाम जैन सिद्धान्त में 'अपकर्ष काल' कहा है। कदाचित् उन आठों अपकर्ष-कालों में से कभी भी अन्य भव की आयु न बन्ध पाई हो तो अन्तिम समय (मृत्यु क्षण) में अन्य भव की आयु अवश्य बन्ध जाती है। इसी कारण आचार्यों का उपदेश है कि सदा अपने परिणाम अच्छे रक्खो, मन, वचन, काय की चेष्टा पापमय न होने दो, क्योंकि पता नहीं किस क्षण में अन्य भव की आयु बन्धने का अवसर आ जाए। आयु बन्धने के समय मन-वचन-काय की प्रवृत्ति यदि अशुभ होगी तो नरक या तिर्यञ्च की आयु बन्ध सकती है, अन्यथा मरने के समय जैसे परिणाम होंगे उनके अनुसार परभव का आयुबन्ध हो जायगा ।
___इसी के अनुसार लोक में यह कहावत प्रचलित है कि 'अन्त मति सो गति' यानि-मरण-समय में जैसे परिणाम होंगे, आगामी भव भी उसी प्रकार का होगा । अतः अन्य भव सुधारने में 'सल्लेखना' विशेष कारण है।
नीतिकार ने कहा है
अमृत-कण
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