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बुरे कर्म का फल भी कोई नहीं चाहता, परन्तु यह बात ध्यान देने की है कि चेतन के संसर्ग से कर्म में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिससे वह अच्छे बुरे कर्मों का फल जीव पर प्रकट करता रहता है । जैन धर्म यह कब कहता है कि कर्मफल में ईश्वर • (जीव) का कोई हाथ नहीं है।
कल्पना कीजिये कि एक मनुष्य धूप में खड़ा है और गर्म चीज खा रहा है और चाहता है कि मुझे प्यास न लगे। यह कैसे हो सकता है ? एक सज्जन मिर्च खा रहे हैं और चाहते हैं कि मुँह न जले, क्या यह सम्भव है ? एक आदमी शराब पीता है,
और साथ ही चाहता है कि नशा न चढ़े । क्या यह व्यर्थ कल्पना नहीं है ? केवल चाहने और न चाहने भर से कुछ नहीं होता। जो - कर्म किया है, उसका फल भी भोगना आवश्यक है। इसी विचारधारा को लेकर जैन-दर्शन कहता है कि जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है।
ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन है। तब दोनों में भेद क्या रहा? भेद केवल इतना ही है कि जीव अपने कर्मों से बंधा है और ईश्वर उन बन्धनों से मुक्त हो चुका है । एक कवि ने इसी बात को कितनी सुन्दर भाषा में लिखा है :
आत्मा परमात्मा में कर्म ही का भेद है।
काट दे यदि कर्म तो फिर भेद है न खेद है ॥ जैन-दर्शन कहता है कि ईश्वर और जीव में विषमता का कारण औपाधिक कर्म है। उसके हट जाने पर विषमता टिक नहीं - सकती । अतएव कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर बन जाते हैं। सोने में से मैल निकाल * दिया जाय तो फिर सोना शुद्ध परमात्मा बन जाता है।
निष्कर्ष यह निकला कि प्रत्येक जीव कर्म करने में जैसे स्वतंत्र है, वैसे ही कर्म-फल भोगने में भी वह स्वतंत्र ही रहता है। ईश्वर का वहां कोई हस्तक्षेप नहीं होता।
कर्मवाद का व्यावहारिक रूप
मनुष्य जब किसी कार्य को आरम्भ करता है, तो उसमें कभी-कभी अनेक विघ्न और बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का मन चंचल हो जाता है और वह घबड़ा उठता है। इतना ही नहीं, वह किंकर्तव्य विमूढ़-सा बन कर अपने आसपास के संगी-साथियों को अपना शत्र समझने की भूल भी कर बैठता है। फलस्वरूप अंतरंग कारणों को भूलकर बाहरी कारणों से ही जूझता रहता है।
ऐसी दशा में मनुष्य को पथ भ्रष्ट होने से बचाकर सत्पथ पर लाने के लिये सुयोग्य गुरु और कोई नहीं, कर्म-सिद्धान्त ही हो सकता है । कर्मवाद के अनुसार मनुष्य को यह विचार करना चाहिये कि जिस अंतरंग में विघ्न रूपी विष-वृक्ष अंकुरित और फलित हुआ है, उसका बीज भी उसी भूमि में होना चाहिये। बाहरी शक्ति तो जल और वायु की भांति मात्र निमित्त कारण हो सकती है । असली कारण तो मनुष्य के अपने अन्दर ही मिल सकता है, बाहर नहीं। अस्तु, जैसे कर्म किये हैं, वैसा ही तो उसका फल मिलेगा। नीम का वृक्ष लगा कर यदि कोई आम के फल चाहे तो कैसे मिलेंगे ? मैं बाहर के लोगों को व्यर्थ ही दोष देता हूं। उनका क्या दोष है ? वे तो मेरे कर्मों के अनुसार ही इस दशा में परिणत हुए हैं । यदि मेरे कर्म अच्छे होते, तो वे भी अच्छे न हो जाते ? जल एक ही है, वह तमाखू के खेत में कड़वा बन जाता है तो ईख के खेत में मीठा भी हो जाता है । जल अच्छा बुरा नहीं है। अच्छा और बुरा है तम्बाकू और ईख । यही बात मेरे और मेरे संगी-साथियों के सम्बन्ध में भी है। मैं अच्छा हूं तो सब अच्छे हैं और मैं बुरा हूं तो सब बुरे हैं।
मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिये मानसिक शान्ति की बड़ी भारी आवश्यकता है और वह इस प्रकार कर्मसिद्धान्त से ही मिल सकती है। आँधी और तूफान में जैसे हिमाचल अटल और अडिग रहता है, वैसे ही कर्मवादी मनुष्य भी अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्त तथा स्थिर रहकर अपने जीवन को सुखी और समृद्ध बना सकता है। अतएव कर्मवाद मनुष्य के • व्यावहारिक जीवन में बड़ा उपयोगी प्रमाणित होता है।
__ कर्म सिद्धान्त की उपयोगिता और श्रेष्ठता के सम्बन्ध में डॉ० मैक्समूलर के विचार बहुत ही सुन्दर और विचारणीय हैं। उन्होंने लिखा है :
यह तो सुनिश्चित है कि कर्मवाद का प्रभाव मनुष्य-जीवन पर बेहद पड़ा है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि
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