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इस संदर्भ में आचार्यश्री ने मन की शुद्धि पर विशेष बल देते हुए कहा कि किसी भी दुष्कर्म के प्रक्षालन के लिए मन का प्रक्षालन आवश्यक है। प्राचीन समय में लोग धर्म के मार्ग को जानते थे। उनके जीवन में ऋजुता थी। इसीलिए वे किसी बाह्य दण्डविधान की अपेक्षा मन के पश्चात्ताप को विशेष महत्त्व देते थे। किसी भी अपराध के लिए मानसिक पश्चाताप पर्याप्त माना जाता था, जिससे कि उस अपराध की पुनरावृत्ति न हो। “प्राचीन समय में दंडनीति के अन्तर्गत हा! मा! धिक् ! की शिक्षा ही पर्याप्त था । जैसे-जैसे परिवर्तन होने लगा, लोग यह नीति मार्ग छोड़कर उद्दण्ड हो गए।"
काल परिवर्तनशील है। इस संसार में कभी मंद जीव होते हैं और कभी विवेकशील जीवों का जन्म होता है। आज पश्चिम के प्रभाव के कारण हमारे धार्मिक संस्कार मिटते जा रहे हैं। प्राचीन समय में हमारे देश में ऐसी पाठशालाएं थीं, जिनमें भव्य संस्कारों की शिक्षा दी जाती थी। इसीलिए लोग धर्म के मार्ग पर चलते थे। आज इस प्रकार की शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है।
बच्चों को अच्छे संस्कारों की शिक्षा माँ-बाप से प्राप्त हो सकती है। परन्तु जब आज के माँ-बाप पर ही कोई बंधन नहीं, तो बच्चों पर बंधन कैसे होगा? आज घर में पालन-पोषण के लिए दाई को रखना पड़ता है। वही स्तन-पान कराती है । बच्चे जैसा अन्न खायेंगे, वैसे उनके संस्कार बनेंगे। महाभारत में मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह ने भी यह स्वीकार किया था कि चीर-हरण के समय मैं द्रौपदी की रक्षा इसलिए नहीं कर सका, क्योंकि उस समय दुर्योधन का अन्न खाने के कारण मेरे संस्कार दूषित हो गये थे । आज युद्ध के उपरान्त मेरे संस्कार फिर शुद्ध हा गए हैं, और मैं यह बात स्वीकार कर रहा हूं।
जैन धर्म के स्याद्वाद की ओर संकेत करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि अनेकांतवाद के वास्तविक स्वरूप को हमें समझना चाहिए। भगवान महावीर स्वामी के मन में जब सांसारिक प्राणियों के कल्याण की कामना उत्पन्न हुई, तब उन्होंने पहले स्वय सांसारिक प्रलोभनों का त्याग किया और फिर संसार को क्लेश-द्वेष से मुक्ति प्रदान करने का मार्ग दिखाया। भगवान् महावीर स्वामी ने सोचा कि यदि मैं निःस्वार्थ भाव से प्रचार करू गा, तभी लोगों पर उसका प्रभाव पड़ेगा। इसीलिए दिगम्बर बनकर उन्होंने ससार को उपदेश दिया।
आज भी धर्म-प्रभावना के लिए महावीर स्वामी की वाणी का प्रचार आवश्यक है। दिगम्बर साधु यह प्रचार करते रहते हैं। लोगों को स्वयं भी सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिए । केवल मंदिर जाना ही पर्याप्त नहीं है। मंदिर जाने के साथ-साथ साहित्य का अध्ययन मनन भी आवश्यक है। मंदिर और साहित्य दोनों परस्पर सम्बन्धित होने चाहिये। मंदिरों के माध्यम से साहित्य का प्रचार अवश्य होना चाहिए।
क्या संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहना सम्भव है?
-अपने मनोभावों को शब्दबद्ध करते हुए मैंने फिर पूछा। आचार्यश्री ने एक लौकिक आख्यान के द्वारा हमारी इस जिज्ञासा को शांत किया।
एक बार एक जिज्ञासु के मन में इसी प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ। अपनी शंका के निवारण के लिए वह एक दिगम्बर साध के पास गया और यही सवाल उससे पूछा कि क्या संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहना सम्भव है ? दिगम्बर साधु ने स्वयं कोई उत्तर नहीं दिया और उस प्रश्नकर्ता को एक सेठ के पास भेज दिया । उस व्यक्ति ने सेठ के पास जाकर देखा कि सेठ अपने कामकाज में अत्यंत व्यस्त था। उसके पास अनेक लोग आ-जा रहे थे। वह जिज्ञासु व्यक्ति यह दृश्य देखकर निराश हो गया। उसने सोचा कि जो व्यक्ति स्वयं सांसारिक कार्यों में इतना लिप्त है, वह मेरे प्रश्न का उत्तर भला क्या देगा? इसी समय एक नौकर आया और उसने कहा"सेठ जी ! पचास हजार का घाटा हो गया।" "होगा, होगा!" सेठ ने कहा और फिर अपने काम में व्यस्त हो गया। वह व्यक्ति यह देखकर स्तब्ध रह गया। सेठ के चेहरे पर किपी प्रकार का भाव-परिवर्तन नहीं था। वह सर्वथा निर्विकार था । वही मुनीम थोड़ी देर बाद फिर आया
और कहा "बाबूजी ! चार लाख का लाभ हो गया।" "हुआ होगा" ---सेठ ने कहा। इतने बड़े लाभ की बात सुनकर भी वह उत्तेजित नहीं हुआ। जिज्ञासु को अपने प्रश्न का उत्तर स्वतः प्राप्त हो गया कि जो व्यक्ति सुख-दुःख में समभाव रख सकता है, हानि-लाभ में निर्विकार रह सकता है, वही व्यक्ति इस संसार में रहते हुए भी इस संसार से विरक्त रह सकता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि कमल कीचड़ में रहता हुआ भी उससे असम्पृक्त रहता है।
____ अब उस जिज्ञासु व्यक्ति ने व्यापारी से पूछा कि आपने यह बात कहाँ से सीखी ? उस सेठ ने उत्तर दिया कि जिन्होंने तुम्हें मेरे पास भेजा, उन्होंने ही मुझे यह शिक्षा दी । उसी साधु ने, उसी मेरे गुरु ने, मुझे यह सब सिखाया कि यदि कोई व्यक्ति समभाव से अपने कर्तव्य-कर्मों का निर्वाह करता है, सुख-दुःख, हानि-लाभ में निर्विकार रहता है, तब वह गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी उससे मुक्त
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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