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पीछे तक, संध्या को ३ । २।१घड़ी पहिले से ३ । २।१ घड़ी रात्रि तक सामायिक करना योग्य है। इन समयों में परिणामों की विशुद्धता विशेष रहती है।
कई ग्रन्थों में सामायिक काल सामान्य रीति से ६ घड़ी कहा गया है। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ की संस्कृत टीका और दौलत क्रियाकोष में तीनों समयों को मिला कर भी ६ घड़ी कहा है। श्री धर्मसागर जी ने जघन्य २ घड़ी, मध्यम ४ घड़ी और उत्कृष्ट ६ घड़ो कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि सामायिक व्रत में जघन्य दो घड़ी से लेकर उत्कृष्ट ६ घड़ी पर्यन्त योग्यतानुसार त्रिकाल सामायिक का काल है।
(४) योग्य आसन-काष्ठ के पाटे पर, शिला पर, भूमि पर, बालू के रेत में पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके पर्यकासन (पद्मासन) बाँध कर, खड़े होकर (खड्गासन) अथवा अर्धपद्मासन या पालथी मार कर, इनमें से जिस आसन से शरीर की स्थिरता तथा परिणामों की उज्ज्वलता नियत काल तक रहनी सम्भव हो, उसी आसन से क्षेत्र का प्रमाण करके इन्द्रियों के व्यापार वा विषयों से विरक्त होते हुए; केश, वस्त्रादि को अच्छी तरह बाँधकर (जिसमें उनके हिलने से चित्त में क्षोभ न हो) हस्तांजली जोड़, स्थिर चित्त करके सामायिक, वन्दनादि पाठों का, पंचपरमेष्ठी का अथवा अपने स्वरूप का चितवन करे और उसमें लीन रहे।
(५) योग्य विनय-सामायिक के आरम्भ में पृथ्वी को कोमल वस्त्र या अमाड़ी की कोमल बुहारी से बुहार कर ईर्यापथशुद्धिपूर्वक खड़ा होवे, क्षेत्र काल का प्रमाण करे तथा ६ वार णमोकार मंत्र पढ़ कर हाथ जोड़ कर पृथ्वी पर मस्तक लगाकर नमस्कार करे। पश्चात् चारों दिशाओं में नव-नव बार णमोकार मंत्र कह कर तीन-तीन आवर्त दोनों हाथ की अंजुली जोड़ दाहिने हाथ की ओर से तीन बार फिराना और एक-एक शिरोनति (दोनों हाथ जोड़ नमस्कार) करे । पीछे खड़े हो या बैठ कर योग्य आसन पूर्वक णमोकार मंत्र का जाप करे, पंच परमेष्ठी के स्वरूप का चितवन करे, सामायिक पाठ पढ़े, अनित्यादि द्वादश-अनुप्रेक्षा का चिंतन करे, आत्म-स्वरूप का चितवनपूर्वक ध्यान लगावे और अपना धन्य भाग समझे ।
सामायिक पाठ के ६ अंग हैं। (१) प्रतिक्रमण-अर्थात् जिनेन्द्र देव के सन्मुख अपने द्वारा किये हुए पापों की क्षमा-प्रार्थना करना, (२) प्रत्याख्यान-आगामी पाप त्याग की भावना करना, (३) सामायिक कर्म-सामायिक के काल तक सब में ममताभाव त्याग करके समता भाव धारण करना, (४) स्तुति-चौबीसों तीर्थंकरों का स्तवन करना, (५) वन्दना-किसी एक तीर्थंकर का स्तवन करना, (६) कायोत्सर्ग-काय से ममत्व छोड़कर आत्मस्वरूप में लवलीन होना।
__ इस प्रकार समभावपूर्वक चितवन करते हुए जब काल पूरा हो जाय, तब प्रारम्भ की तरह आवर्त, शिरोनति तथा नमस्कारपूर्वक सामायिक पूर्ण करें।
(६) मनःशुद्धि-मन को शुभ तथा शुद्ध विचारों की तरफ झुकावे, अति-रौद्र ध्यान में दौड़ने से रोक कर धर्म ध्यान में लगावे। जहां तक सम्भव हो, पंच परमेष्ठी का जाप वा अन्य कोई भी पाठ, वचन के बदले मन से स्मरण करे, ऐसा करने से मन इधरउधर चलायमान नहीं होता।
(७) वचन-शुद्धि-हुंकारादि शब्द न करे, बहुत धीरे-धीरे या जल्दी-जल्दी पाठ न पढ़ , जिस प्रकार अच्छी तरह समझ में आवे, उसी प्रकार समानवृत्ति एवं मधुर स्वर से शुद्ध पाठ पढ़ कर धर्म-पाठ के सिवाय कोई और वचन न बोले ।
(E) काय-शुद्धि-सामायिक करने के पहले स्नान करने, अंग अंगोछने, हाथ-पांव धोने आदि से जिस प्रकार योग्य हो, यत्नाचारपूर्वक शरीर पवित्र करके, वस्त्र पहिन कर सामायिक में बैठे और सामायिक के समय शिरःकम्प, हस्तकम्प अथवा शरीर के अन्य अंगों को न हिलावे-डुलावे, निश्चल अंग रक्खे । कदाचित् कर्मयोग से सामायिक के समय चेतन-अचेतन कृत उपसर्ग आ जाय, तो भी मन-वचन-काय को चलायमान न करते हुए उसे सहन करे ।
यहां कोई प्रश्न करे कि यदि सामायिक के समय अचानक लघुशंका या दीर्घशंका की तीव्र बाधा आ जाय, तो क्या करना चाहिये? उसका उत्तर यह है कि प्रथम तो व्रती पुरुषों का खान-पान नियमित होने से उनको इस प्रकार की अचानक बाधा होना सम्भव नहीं, और कदाचित् कर्मयोग से ऐसा ही कोई कारण आ जाय, तो उसका रोकना या सहन असम्भव होने से उस काम से निबट कर, प्रायश्चित्त ले, पुनः सामायिक स्थापन करे।
अमृत-कण
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