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की एक ऐसी आग भड़कती है जिसमें अनेक लोग झुलस कर रह जाते हैं। आपके विचार से भारत जैसे इस विशाल देश में साम्प्रदायिक सद्भाव की सृष्टि किस प्रकार हो सकती है ? छुआछूत, ऊँच-नीच, भेद-भाव की संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण आज हमारा समाज विघटित हो रहा है। इस विघटन को रोकना किस प्रकार सम्भव है ?
"प्रश्न ठीक है । धर्म तो प्रत्येक मानव प्राणी के लिए एक ही है -- "अहिंसा परमो धर्मः"। जब तक हम इस मूल स्वरूप का नहीं समझेंगे, तब तक हम किसी भी धर्म को मानें, जीव का कल्याण नहीं हो सकता । धर्म तो एक ही है। धर्म दो नहीं हैं । परन्तु लोग उसके मार्ग भिन्न-भिन्न मानकर, उसे अलग-अलग रूप देकर उसकी आराधना करते हैं। धर्म तो एक ही है ।
एक बार दो ब्राह्मण परस्पर मिले। एक उत्तर से आया था और दूसरा दक्षिण से एक ने कहा- 'सीताराम', दूसरे ने कहा 'सियाराम' - और वे दोनों वाद-विवाद करने लगे। उसी समय एक व्यक्ति उधर से गुजरा। उसने कहा सीताराम और सियाराम दोनों एक ही हैं। दोनों का अर्थ एक ही है। एक है सीताराम, इसी को अपभ्रंश में कहते हैं सियाराम ।
इस प्रसंग से महाराज का अभिप्राय स्वतः स्पष्ट था—सत्य एक है । विविध भाषाओं में उसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न रूपों में होती है। महाराज ने फिर कहा- "मनुष्य धर्म तो एक ही है । परन्तु हम उसे जानते नहीं । अहिंसा मूल तत्त्व है । प्राणियों पर दया करना धर्म है । उनके दुःखों को दूर करना धर्म है। उपकार करना धर्म है। इसके अलावा दूसरा कोई धर्म नहीं ।
यमुना नदी है । सभी उसका जल भरते हैं। किसी का घड़ा मिट्टी का है, किसी का लोहे का है तो किसी का चांदी का है । सभी घड़ों में जल एक ही है; पर सब लड़ते हैं। विवाद करते हैं कि मेरा घड़ा अच्छा है, मेरा घड़ा अच्छा है, मेरा घड़ा अच्छा है । पर वे नहीं जानते कि सभी घड़ों में जल तो एक ही है। इसी प्रकार संसारी प्राणी ऊँच-नीच को मानकर परस्पर लड़ते रहते हैं। जब तक वे इस सत्य को नहीं जानेंगे, झगड़ा चलता रहेगा । वास्तव में अंतर तो बाह्य है, भीतरी नहीं । सारे झगड़े पुद्गल के हैं । यह मेरा धर्म है । यह विधर्म है । इंसान यही सोचता है । अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो कोई झगड़ा नहीं। मनुष्य भाव-कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप धारण करता है | अध्यात्म की दृष्टि से सब एक हैं। पर्याय की दृष्टि से अनेक हैं। इस प्रकार यदि विचार किया जाए तो कोई शत्रु नहीं, कोई मित्र नहीं। हम सभी प्राणी एक हैं।
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आधुनिक युग के बदलते हुए रीति-रिवाजों एवं आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए मैंने कहा – महाराज ! जो अन्न हम खाते हैं, उस अन्न के द्वारा हमारे भावों एवं विचारों का पोषण होता है। मांसाहार एवं शाकाहार का किसी भी प्राणी के मन पर क्या प्रभाव पड़ता है ? आज के युवावर्ग में मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को कैसे रोका जा सकता है ?
एक पौराणिक प्रसंग के माध्यम से महाराज ने इस प्रश्न का उत्तर दिया। एक बार एक साधु के पास एक व्यक्ति आया । उसने नमस्कार किया। साधु ने कहा "मनुष्य बन जा”। उस व्यक्ति ने फिर नमस्कार किया और साधु ने फिर वही उत्तर दिया"मनुष्य बन जा ।" तीसरी बार जब उस व्यक्ति ने पुनः नमस्कार किया, तब उस साधु ने भी वही उत्तर दिया- "मनुष्य बन जा ।" वह व्यक्ति बोला, महाराज ! मैं पशु तो नहीं, मैं मनुष्य हूं । आपके सामने खड़ा हूँ। तीन बार मैंने नमस्कार किया और तीनों बार आपने कहा "मनुष्य बन जा" "मनुष्य बन जा"। उस परम तपस्वी साधु ने उसे समझाते हुए कहा तेरे अंदर की प्रवृत्ति और तेरा आचरण पशु का है। जब तक तेरे अंदर का पशु नहीं निकलेगा, जायेगा, तू मनुष्य नहीं बन सकता ।
इसी प्रकार आज के युवा वर्ग में बढ़ती हुई मांसाहार की प्रवृत्ति को रोकना संभव है । परन्तु इसके लिए अथक प्रयास की आवश्यकता है। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए स्कूलों में शिक्षा का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए। सभी प्राणियों के प्रति प्रेम-भावना का प्रसार होना चाहिए। युवा वर्ग को शाकाहार के सत्प्रभाव से परिचित कराना आवश्यक है। युवा वर्ग में अच्छे संस्कारों का भी निर्माण होना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जैनधर्म के संस्कारों का व्यापक प्रचार जरूरी है। जैनधर्म की शिक्षा से मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को संयमित किया जा सकता है ।
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[D] नर और नारी के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में भी हमने महाराज से चर्चा की और अपने मन की जिज्ञासा को उनके सामने प्रस्तुत करते हुए कहा - महाराज ! आज के जीवन में नर-नारी के पारस्परिक सम्बन्धों में जो एक परिवर्तन आता जा रहा है, उस परिवर्तन को देखते हुए हम आपसे कुछ पूछना चाहते हैं । मध्यकाल के संतों ने नारी को मोह-माया का बंधन माना है । उसे सिद्धि मार्ग की बाधा कहा है । आपके विचार से नारी सिद्धि मार्ग की बाधा है अथवा उसकी प्रेरक शक्ति ?
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बेटा, तेरा आकार तो मनुष्य का है, परन्तु जब तक पशु का आचरण तेरे भीतर से नहीं
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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