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यदि वचन-योग से उनकी दिव्यध्वनि होती है तो उसके द्वारा प्रत्येक जीव को कल्याणकारी, सुपथ-प्रदर्शक, तत्त्व, पदार्थ, लय, कर्मबन्धन, कर्ममोचन, व्यवस्था, संसार-भ्रमण, संसार-मुक्ति आदि सिद्धान्तों का विवेचन जनता को सुनने के लिये मिलता है। उसको सुनकर असंख्य प्राणी सन्मार्ग पर चलते हुए आत्म-कल्याण करते हैं । बहुत-से मनुष्य उन के पद-चिह्नों पर चलकर उन अर्हन्त भगवान् के समान ही घाति कर्म का क्षय करके अर्हन्त बन जाते हैं । बहुत-से व्यक्ति उनका दर्शन करके अपने आत्मा की अनुभूति करने लगते हैं। उनके समीपवर्ती विकराल हिंसक जीव सिंह, बाघ, भेड़िया, सर्प, बिल्ली आदि जानवर अर्हन्त भगवान् के प्रभाव से अपनी हिंसक भावना छोड़ कर गाय, हिरण, खरगोश, चूहे, कबूतर आदि जीव जन्तुओं के साथ प्रेम से खेलते हैं।
उन अर्हन्त भगवान् का दर्शन करते ही मनुष्य के हृदय में शान्ति का स्रोत बहने लगता है। उनका पुनीत नाम लेने से ही रसना (जीभ) पवित्र हो जाती है । अतः सबसे प्रधान मंगलरूप भगवान् अर्हन्त परमात्मा हैं। प्रातः सब से प्रथम अर्हन्त भगवान् की मूर्ति का दर्शन करना मंगलमय है।
अर्हन्त भगवान् का दर्शन, स्तवन, चिन्तवन करने से शुद्ध आत्मा का स्मरण होता है । राग-द्वेष, क्रोध, भय, शोक आदि त्याग कर, क्षमा-शान्ति-समता आदि गुणों की ओर चित्त आकर्षित होता है। आत्मा का अनुभव करने की ओर प्रवृत्ति बढ़ती है। अतः शुभ कर्म का आस्रव होता है, अशुभ कर्मों की निर्जरा तथा संवर होता है, जिससे कि आत्मा को सुख प्राप्त होता है। चित्त शान्त, सन्तुष्ट व निराकुल होता है।
सिद्ध मंगल
अर्हन्त भगवान् जब शेष वेदनीय, आयु, नाम भोर गोत्र --इन चार अघाती कर्मों का क्षय करके पूर्ण मुक्त हो जाते हैं, उस समय पूर्ण आत्मसिद्धि पा लेने के कारण सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। द्रव्य कर्म, भावकर्म, तथा नोकर्म (शरीर) से मुक्ति पा लेने के कारण उनकी आत्मा परम विशुद्ध अपने स्वाभाविक अमूर्तिक अंतिम मनुष्याकार में स्थिर हो जाती है-अनन्त समय तक उसी आकार में रह जाती है। कर्मबन्धन से मुक्त हो जाने के कारण तदनन्तर वे स्वयं मनुष्य लोक से गमन करके लोकाकाश के सब से उच्चभाग तनुवात बलय में विराजमान हो जाते हैं । उससे ऊपर अलोकाकाश है, वहां पर धर्मास्तिकाय न होने से नहीं जाते ।
अष्ट कर्म नष्ट होने से उनमें कर्मों के अभावरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख, अनन्तवीर्य, अब्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघु -ये आठ गुण प्रगट होते हैं । इनके साथ ही और भी अनन्तगुण पूर्ण विकसित हो जाते हैं। ऐसे परम शुद्ध सिद्ध परमात्मा का साक्षात् दर्शन तो किसी को होता नहीं, अतः उनका ध्यान, स्मरण, चिन्तन तथा स्तवन ही किया जाता है। साक्षात् दर्शन न होने के कारण तथा उनसे उपदेश आदि न मिलने के कारण ही उनका नाम अर्हन्त के पीछे लिया जाता है।
___ तीर्थकर संसार में किसी को नमस्कार नहीं करते, केवल सिद्ध परमेष्ठी को ही नमस्कार करते हैं। कार्य प्रारम्भ करने से पहले जनसाधारण भी 'नमः सिद्धेभ्यः' कहकर सिद्ध परमात्मा को स्मरण करते हैं। ऐसे परम पुनीत सिद्ध भगवान् भी उत्तम मंगल रूप हैं। उनका मन में स्मरण करते ही चित्त पवित्रता की ओर आकर्षित होता है। उनके गुण-गायन करने से मुख पवित्र हो जाता है, हृदय में शुद्ध आत्मा की लहर लहराने लगती है जिससे अशुभ कर्म क्षय होकर शुभ कर्म का आस्रव होता है। विघ्न-बाधायें नष्ट हो जाती हैं। प्रारब्ध कार्य में सफलता मिलती है। अत: प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में “ॐ नमः सिद्धेभ्यः" उच्चारण किया करो। शय्या से उठते ही सिद्धों का स्मरण करो तथा विविध स्तोत्रों का पाठ करो। यथा
विराग सनातन शान्त निरंश, निरामय निर्भय निर्मल हंस। सुदाम विबोध निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ॥
१. (क) “पूर्वबद्ध कर्मों के झड़ने का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है-सविपाक व अविपाक । अपने समय स्वयं कर्मों का उदय
में आ आकर झड़ते रहना सविपाक, तथा तप द्वारा समय से पहले ही उनका झड़ना अविपाक निर्जरा है। सविपाक सभी जीवों को सदा निरन्तर होती रहती है, पर अविपाक निर्जरा केवल तपस्वियो को ही होती है।"
-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, पृ० ६२० (ख) आस्रव-निरोधः संवर:-आस्रव का निरोध संवर है।
-तत्त्वार्थसूत्र, ६/१
भवृत-कण
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