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शुद्धि की जा सकती है, जिसके द्वारा आत्मा की उपलब्धि हो सकती है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह तो आत्मा का 'निजधर्म' है। इसीलिये आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् की स्तुति करते हुए उनके तीर्थ, शासन या धर्म को सर्वोदय तीर्थ बताया है
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् ।
सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोवयं तीर्थमिदं तवैव ॥ अर्थात् आपका तीर्थ या शासन द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक आदि समस्त धर्मों को लिये हुए है, गौण और मुख्य की कल्पना को साथ में लिये हुए है। जो शासन सब धर्मों में पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता, वह सब धर्मों से शून्य है। इसलिए आपका ही शासन सब दुःखों का अंत करने वाला है और वही सब प्राणियों के अभ्युदय का कारण है ।
आगे समन्तभद्र स्वामी जैन शासन की विशेषता बताते हुए कहते हैं
दमादमत्यागसमाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम ,
अध ष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैजिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ अर्थात् हे जिनदेव! आपका मत दया, इन्द्रियदमन, त्याग और प्रशस्त ध्यान से युक्त है, नय और प्रमाणों से सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है, दूसरे सारे वादों के द्वारा यह दूषित नहीं हो सकता, ऐसा आपका अद्वितीय शासन है ।
आचार्य ने इसमें जैन शासन की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जैन शासन में जीवों की रक्षा का विधान है । यह शासन वस्तुतः जीव-दया की नींव पर ही खड़ा है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, परोपकार आदि सभी व्रत दया पर ही निर्भर हैं। दया का जैन शासन में इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है कि आत्मा की उपलब्धि के सारे आयोजन स्व-दया में सम्मिलित हो जाते हैं । जीव के बुरे संकल्प और विचार, बुरी भावनाएं जीव के प्रति अदया कहलाती हैं, अत: उस अदया को दूर किये बिना स्व की उपलब्धि संभव नहीं है। अतः दया ही धर्म का वास्तविक मूलाचार है।
इस शासन में इन्द्रिय-दमन का विधान है। आत्मा इन्द्रियों के आधीन होकर विषयों में रमण कर रहा है, इष्ट की प्राप्ति के लिये व्याकुलता और अनिष्ट के वियोग के लिये प्रयत्न इन्द्रिय-लिप्सा और विषयों की रस-लालसा की वजह से है । जब तक इन्द्रियों का दमन नहीं किया जायेगा, उन्हें विजय नहीं किया जायगा, तब तक आत्मा की प्रवृत्ति संसार की ओर बनी रहेगी, वह अपने को पाने की ओर उन्मुख ही नहीं होगा। इसीलिये तो 'आत्मा का अहित' विषय-कषाय कहा गया है। ये विषय और कषाय आत्मा का अहित करने वाले हैं। आत्मा का अहित यही है कि उसे पराधीन बना देते हैं। इन्हें जीत कर ही आत्मा स्वाधीन, स्वतन्त्र हो सकता है और यह स्वाधीनता, इन्द्रिय-दासता से मुक्ति तभी मिल सकती है जब इन्द्रियों का दमन किया जाय ।
आत्मा के साथ जो परतत्त्व लगा हुआ है और जिसे आत्मा ने 'स्व' मान लिया है, उसका त्याग करना आवश्यक है। पर को स्व मानकर ही तो आत्मा ने यह संसार बसा रक्खा है । पर में स्व बुद्धि हट जाय, स्व को स्व मानने लग जाय तो इस संसार से मुक्ति सरल हो जाय । पर में ममत्व अर्थात् मेरापन ही परिग्रह कहलाता है। जिन्हें पर होते हुए भी वह आत्मा अपना मानता है, वह कोई भी पदार्थ हो, चाहे अपना शरीर हो, कुटुम्ब हो, धन दौलत हो या कुछ भी-ये सब चीज परिग्रह कहलाती हैं और इनमें स्वबुद्धि भी परिग्रह कहलाती है। इन दोनों बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके ही स्व की उपलब्धि हो सकती है। अत: जैन शासन में त्याग पर विशेष बल दिया गया है ।
___ इन तीनों दया, दम, और त्याग के अतिरिक्त जैन शासन में समाधि अर्थात् प्रशस्त ध्यान भी बताया गया है। संसारी जीव दिन-रात ध्यान तो करता ही रहता है, वह आर्त और रौद्र ध्यान में सदा फंसा रहता है। दिन-रात विषयों और कषायों का ही ध्यान करता रहता है । लेकिन उसमें भी अनन्त संसार की वृद्धि ही होती है। अत: उन्हें त्याग कर प्रशस्त ध्यान करने का विधान किया है । जब अप्रशस्त ध्यान छोड़ कर प्रशस्त ध्यान-धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान-करेंगे, तभी कर्म-जाल को तोड़ा जा सकेगा। आत्मा जब अपने शुद्ध स्वरूप के बारे में एकाग्र मन से चिंतन करता रहता है तो उसे अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान होता है और शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का उत्साह होता है । आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अप्रशस्त ध्यानों के कारण ही है । उस सम्बन्ध को प्रशस्त ध्यानों के द्वारा ही तोड़ा जा सकता है और जब वह सम्बन्ध टूट जाता है तो आत्मा शुद्ध व निर्मल हो जाती है। उसका आवागमन, जन्म-मरण नष्ट हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार जैन शासन की प्रथम विशेषता यह है कि उपर्युक्त चारों बातें बताई गई हैं जिनके द्वारा आत्मा की मुक्ति
अमृत-कण
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