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महाव्रतधारी आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीनों गुरु कहलाते हैं। पूज्यता की दृष्टि से सबसे नीचा पद साधु का माना गया है। साधु से अधिक पूज्य उपाध्याय होते हैं । उपाध्याय से भी उच्चपद आचार्य परमेष्ठी का होता है । आचार्य परमेष्ठी से अधिक पूज्यता सिद्ध परमेष्ठी में मानी गई है और सबसे अधिक पूज्यता अर्हन्त भगवान् में होती है। यद्यपि आत्मशुद्धि की दृष्टि से सिद्ध परमेष्ठी का पद सबसे उच्च है क्योंकि वे सर्वकर्मविनिमुक्त होते हैं, जबकि अर्हन्त भगवान् को चार अघातिकर्म नाश करने शेष रहते हैं, परन्तु संसार से पार करने का दिव्य उपदेश जनता को अर्हन्त भगवान् द्वारा ही मिला करता है, उनसे ही लोक-कल्याण हुआ करता है, अतः -जगत् में अर्हन्त को सबसे अधिक पूज्य माना गया है।
इसी तरह गुरुओं में आत्मशुद्धि की दृष्टि से साधु उच्च होते हैं, परन्तु लोकमान्यता की दृष्टि से आचार्य को सबसे उच्च गुरु माना गया है । साधु आचार्य की आज्ञानुसार चलते हैं। आचार्य को अपना गुरु समझते हैं, उनसे प्रायश्चित्त, दीक्षा लेते हैं। उपाध्याय आचार्य के शासन में रहते हैं । अतः आचार्य से उनका पद कम होता है किन्तु अधिक ज्ञानवान होने से वे साधुओं से उच्च माने जाते हैं । आचार्य और उपाध्याय एक पदवी है । साधुओं के संघ में जो सबसे अधिक अनुभवी, विद्वान्, तपस्वी, प्रभावशाली होते हैं उनको या तो संघ द्वारा अथवा गुरु आचार्य द्वारा 'आचार्य' पद प्रदान किया जाता है, अधिक शास्त्रज्ञ विद्वान् साधु को उपाध्याय पद दिया जाता है । आचार्य और उपाध्याय जब अधिक आत्मशुद्धि करने के लिये संघ से अलग होकर तपस्या करने के लिये तत्पर होते हैं, अथवा समाधिमरण में आरूढ़ होते हैं तब सब संघ के समक्ष अपना उत्तराधिकार सुयोग्य साधु को प्रदान करके स्वयं उस कार्य-भार से निश्चिन्त हो जाते हैं । मुक्ति प्राप्त करने के लिये जिस उच्च साधना की आवश्यकता होती है, वह आचार्य व उपाध्याय पद पर रहते हुए. प्राप्त नहीं होती । वह तो साधु पद से ही मिलती है।
___मनुष्य को जब तक आत्मा का अनुभव नहीं होता तब तक वह अपने शरीर, पुत्र, स्त्री, भाई आदि परिवार तथा मित्र परिकर में एवं धन, मकान आदि पदार्थों को अपनाकर उनके मोह-ममता में फंसा रहता है। उसके हृदय में भी संसार होता है और उसके बाहर चारों ओर भी संसार होता है। इस कारण उसका जीवन परिवार के पालन-पोषण तथा सांसारिक विषय-वासनाओं में ही बीत जाता है । किन्तु जिस व्यक्ति को पूर्वभव के संस्कार से या किसी साधु-मुनि के उपदेश से अथवा भगवान् की प्रतिमा के दर्शन से अपनी आत्मा की अनुभूति (सम्यक् श्रद्धा) हो जाती है, उस समय उसकी रुचि आत्मा की ओर हो जाती है । वह फिर शरीर, परिवार, विषयभोगों से ऊपरी दिखावटी प्रेम बनाये रखता है जैसे धाय दूसरे बच्चे को पालते समय उस पर बाहरी प्रेम प्रगट करती है। बाहर से उसके चारों ओर संसार दिखाई देता है, क्योंकि वह कुटुम्ब या परिवार में रहता है, किन्तु उसके हृदय में संसार नहीं होता। उसकी प्रबल इच्छा यही बनी रहती है कि कौन-सी शुभ घड़ी आये जब कि मैं घर-गृहस्थी का भार अपने पुत्र , भ्राता आदि को सौंपकर घर से अलग हो जाऊं और संसार के कोलाहल से दूर वन, पर्वत आदि एकान्त स्थान में अपना सारा समय आत्म-साधना में व्यतीत करू ।
ऐसे विरक्त आत्म-अनुभवी पुरुष को जब घरबार को सम्हालने वाले समर्थ पुत्र आदि का अवसर मिल जाता है तब वह अपने पुत्र, स्त्री आदि को अपना घर-परिवार का भार सौंप कर घर से अलग हो जाता है । घर के साथ ही संसार के समस्त परिग्रह से अन्तरंग-बहिरंग सम्बन्ध त्याग कर किसी गुरु से जाकर साधु दीक्षा ग्रहण करता है। अपने शरीर के समस्त वस्त्र भी उतार आजन्म नग्न रहने की प्रतिज्ञा करके पांच महाव्रत आचरण करता है । शौच आदि के लिये जल रखने को लकड़ी या नारियल का एक कमंडलु, चींटी आदि जीव जन्तुओं को बैठने-सोने आदि के स्थान से दूर करने के लिये मोर के पंखों की बनी हुई एक पीछी तथा ज्ञानाभ्यास के लिये शास्त्र, ये तीन पदार्थ अपने पास रखता है। इनके सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ उसके पास नहीं होता। सदा पैदल विहार करता है। सिर, दाढ़ी, मूंछों के बाल बड़े हो जाने पर दो, तीन या चार मास पीछे अपने हाथ से उनका लोंच कर डालता है। उसको जहां जिस गृहस्थ के घर शुद्ध भोजन विधि-अनुसार मिल जाता है वहां भोजन कर लेता है । शुद्ध भूमि पर ही सो जाता है। भोजन करने तथा सोने के सिवाय शेष सारा समय आत्मध्यान, स्वाध्याय, शास्त्र-चर्चा या उपदेश में लगाता है । इसके सिवाय और कोई कार्य नहीं करता। इस तरह वह अधिकतर आत्म-साधना करता है। इस कारण उसे साधु कहते हैं । 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में साधु परमेष्ठी का स्वरूप यों लिखा है
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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