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जैन धर्म का शाश्वत स्वरूप
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज
'वत्युसहावो धम्मो' अर्थात्-वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं । जिस तरह जल का स्वभाव शीतल है। जल चाहे आकाश से गिरा हो, कुएं या बावड़ी से निकाला हो, किसी झील, नदी या समुद्र से लिया जाय, शीतल ही होगा। हाँ, कुछ स्रोतों से गर्म जल भी आता है परन्तु वह स्वाभाविक नहीं होता। इस पृथ्वी में अनेक स्थानों पर दहनशील अग्निमय पदार्थ भी पाये जाते हैं। अनेक पर्वत ऐसे होते हैं जिनसे अग्निज्वाला निकलती रहती है । पृथ्वी के भीतर कहीं पर गन्धक की खानें होती हैं। किसी जल के सोते के नीचे पृथ्वी में यदि ऐसी कोई अग्निमय पदार्थ की खान हो तो वह उस जल को उष्ण करती रहती है। इस कारण उन सोतों में पानी गर्म ही निकला करता है, जैसे कि राजगृही के कई कुण्डों में निकलता है । परन्तु सोते का वह गर्म जल भी थोड़ी देर पीछे स्वयं ठण्डा होकर अपने स्वभाव में आ जाता है । इस कारण जल का धर्म या स्वभाव शीतल मानना पड़ता है।
आत्मा का स्वभाव आत्मा का धर्म कहलाता है । आत्मा ज्ञान, दर्शन, क्षमा, धैर्य आदि अनन्त गुणों का अखंड पिण्ड है। यद्यपि संसारी जीवों का आत्मा कर्मों के कारण पराधीन बना हुआ है, उसके स्वाभाविक गुण विकृत हो गये हैं, उसके गुणों में से अनेक गुण अविकसित हैं, अनेक विकृत हो गये हैं, किन्तु फिर भी उनकी स्वाभाविक झलक सर्वथा नहीं छिप सकती। जिस तरह सूर्य पर चाहे जितने बादल आ जाएं परन्तु उसके द्वारा जगत् में होने वाला प्रकाश तो हो ही जाता है, जैसे कि वर्षा के दिनों मे होता है। ज्ञानावरण कर्म के द्वारा संसारी आत्मा का ज्ञान बहुत कम हो गया है। परन्तु ऐसा नहीं है कि वह सर्वथा अस्त हो गया हो, कुछ न कुछ ज्ञान प्रत्येक जीव में पाया ही जाता है। निगोदिया जीव में सबसे कम ज्ञान होता है। वह अक्षर ज्ञान के अनन्तवें भाग होता है। अर्थात् ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है । अतः वह आत्मा में अवश्य सदा रहता है।
क्षमा आत्मा का स्वाभाविक गुण है । क्रोध स्वाभाविक गुण नहीं है । इसी कारण क्रोध थोड़ी देर ठहरता है। उतनी ही देर में क्रोध से आत्मा व्याकुल हो जाता है । क्षमा आत्मा में सदा बनी रहे तो भी आत्मा को कोई कष्ट नहीं होता । इसी प्रकार आत्मा के और भी स्वाभाविक गुण हैं। वे स्वाभाविक गुण जिस मार्ग पर चलने से प्रगट हो जाते हैं उसी का नाम धर्म है । कर्मों के कारण आत्मा के गुण विकृत या अल्प विकसित हो रहे हैं, जिससे कि आत्मा को संसार में जन्म-मरण, भूख-प्यास, रोग , बुढ़ापा, खेद, शोक आदि अनेक तरह के शारीरिक, मानसिक कष्ट मिल रहे हैं। आत्मा दुर्गतियों में चक्कर लगा रहा है। आत्मा जिस मार्ग पर चलने से इन कष्टों से बिल्कुल छट जावे उसका नाम धर्म है। श्री समन्तभद्र आचार्य ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में कहा है
देशयामि समीचीनं धर्मकर्मनिर्वहणम् ।
संसारदुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ अर्थात् धर्म कर्म-जाल को नष्ट करके तथा संसार-दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला होता है, ऐसे धर्म को मैं बताता हूं।
श्री समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में जिस धर्म की रूपरेखा बतलाने का संकेत किया है वह धर्म जैनधर्म के नाम से विख्यात है, जो कि संसार का सबसे प्राचीन धर्म है क्योंकि प्रचलित अवसर्पिणी युग में सबसे प्रथम इसी धर्म का उदय हुआ था। इसका संक्षिप्त इतिहास यों है
__. आज से करोड़ों वर्ष पहले अयोध्या के शासक राजा नाभिराय की रानी मरुदेवी के उदर स परम तेजस्वी पुत्र ऋषभनाथ का जन्म हुआ था। ऋषभनाथ जन्म से ही अवधिज्ञानी थे। जब वे बड़े हुए तो उन्होंने अपने एक सौ पुत्रों को तथा जनता को खेती-बाड़ी, युद्ध,
'अमृत-खंड' के अन्तर्गत विभिन्न चातुर्मासों में आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा दिये गए प्रवचनों का सार-संक्षेप 'डॉ. महेन्द्र 'निर्दोष' द्वारा संकलित-संपादित किया गया है। .
-अमृत-कण
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