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जैनधर्म की मौलिकता
जैनधर्म हिन्दू धर्म की शाखा नहीं हो सकता। क्योंकि जो उसकी शाखा होता है उसका मूल भी वही होता है। जो हिन्दू कर्तावादी हैं उनसे विरुद्ध जैनमत कहता है कि जगत् अनादि व अकृत्रिम है, उसका कर्ता ईश्वर नहीं है। जो हिन्दू एक ही ब्रह्ममय जगत् मानते हैं उनसे विरुद्ध जैनमत कहता है कि लोक में अनन्त परब्रह्म परमात्मा, अनन्त संसारी आत्मा, पुद्गल आदि जड़ पदार्थ, ये सब स्वतन्त्र हैं । कोई किसी का खण्ड नहीं। जो हिन्दू आत्मा या पुरुष को कूटस्थ नित्य या अपरिणामी मानते हैं उनसे विरुद्ध जैनधर्म कहता है कि आत्मायें स्वभाव न त्यागते हुए भी परिणमनशील हैं, तब ही राग-द्वेष भावों को छोड़ वीतराग हो सकती हैं। जैन लोग उन ऋग्वेदादि वेदों को नहीं मानते जिनको हिन्दू लोग अपना धर्मशास्त्र मानते हैं। प्रोफेसर जैकोबी ने आक्सफोर्ड में जैनधर्म का हिन्दू धर्मों से मुकाबला करते हुए कहा है-जैनधर्म सर्वथा स्वतन्त्र है। मेरा विश्वास है कि यह किसी का अनुकरण रूप नहीं है और इसीलिये प्राचीन भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान और धर्म-पद्धति के अध्ययन करने वालों के लिये यह एक महत्त्व की बात है।
(पृष्ठ १४१ गुजराती जैन दर्शन, प्रकाशक अधिपति जैन, भावनगर) बौद्धधर्म पदार्थ को नित्य नहीं मानता है, आत्मा को क्षणिक मानता है, जब कि जैनधर्म आत्मा को द्रव्य की अपेक्षा नित्य, किन्तु अवस्था की अपेक्षा अनित्य मानता है। जैनधर्म में छः द्रव्य हैं, उनकी बौद्धों के यहां मान्यता नहीं है।
इसके विरुद्ध बौद्ध जैनधर्म की नकल जरूर है। पहले स्वयं गौतम बुद्ध जैन मुनि पिहिताश्रव के शिष्य-साधु हुए। फिर उन्होंने म तक प्राणी में जीव नहीं होता, ऐसी शंका होने पर अपना भिन्न मत स्थापित किया। (देखो जैनदर्शन-सार, देवनन्दि कृत),
प्रोफेसर जैकोबी भी कहते हैं
"The Buddhist frequently refer to the Nirgranthas or Jains as a rival sect but they never so much as hint this sect was a newly founded one. On the contrary, from the way in which they speak of it, it would seem that this sect of Nirgranthas was at Budha's time already one of long standing, or in other words, it seems probable that Jainism is considerably older than Buddhism.
(देखो पृष्ठ ४२ गुजराती जैनदर्शन) भावार्थ-बौद्धों ने बार-बार निर्ग्रन्थ या जैनियों को अपना मुकाबिला करने वाला कहा है, परन्तु वे किसी स्थल पर कभी भी यह नहीं कहते हैं कि यह एक नया स्थापित मत है । इसके विरुद्ध जिस तरह वे वर्णन करते हैं उससे यही प्रकट होगा कि निर्ग्रन्थों का धर्म बुद्ध के समय में दीर्घ काल से मौजूद था, अर्थात् यही सम्भव है कि जैनधर्म बौद्धधर्म से अधिक पुराना है।
जैकोबी ने आस्रव शब्द को बौद्ध ग्रन्थों में पाप के अर्थ में देखकर तथा जैन ग्रन्थों में जिससे कर्म आते हैं व जो कर्म आत्मा में आता है ऐसे असली अर्थ में देखकर यह निश्चय किया है कि जहां आस्रव के मूल अर्थ हैं वही धर्म प्राचीन है ।
___Dr. Ry Davids डॉ० राइ डेविड्स ने “Buddhist India" p. 143 में लिखा है कि
"The Jains have remained as an organised Community all through the History of India from before the rise of Buddhism down today."
भावार्थ-जैन लोग भारत के इतिहास में बौद्ध धर्म के बहुत पहिले से अब तक संगठित जाति के रूप में चले आ रहे हैं । लोकमान्य बालगंगाधर तिलक 'केसरी' पत्र में १३ दिसम्बर १९०४ में लिखते हैं कि-बौद्धधर्म की स्थापना के पूर्व जैनधर्म का प्रकाश फैल रहा था । बौद्धधर्म पीछे से हुआ यह बात निश्चित है। हंटर साहिब अपनी पुस्तक इण्डियन इग्पायर के पृष्ठ २०६ पर लिखते हैं कि
जैनमत बौद्धमत से पहिले का है । ओल्डनवर्ग ने पाली पुस्तकों को देखकर यह बात कही है कि जैन और निर्ग्रन्थ एक हैं। इनके रहते हुए बाद में बौद्धमत उत्पन्न हुआ।
(See Buddha's life & Haey's translation 1882) जैनमत बौद्धमत से भी उतना ही भिन्न है जितना भिन्न कि हम उसे किसी भी और मत से कह सकते हैं। बौद्ध ग्रन्थों में तीर्थंकर
ऐतिहासिक खोज (Historical Gleanings) नाम की पुस्तक में, जिसको बाबू विमलचरण लॉ एम० ए० बी० एल० नं० २४ सुकिया स्ट्रीट, कलकत्ता ने सन् १९२२ में सम्पादन कर प्रकाशित कराया है, इस सम्बन्ध में बहुत से प्रमाण लिखे हैं, जिनमें से कुछ यहां नीचे दिये जाते हैं -
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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