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स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः । स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
(ऋग्वेद, १/८६/६) भावार्थ-महा कीर्तिवान् इन्द्र विश्ववेत्ता पूषा तार्थ रूप अरिष्टनेमि व वृहस्पति हमारा कल्याण करें।
वाजस्य नु प्रसव आ बभूवेमा च विश्वा भुवनानि सर्वतः । स नेमि राजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिं वर्धयमानो अस्मे स्वाहा ॥
_(यजुर्वेद, अध्याय ६ मन्त्र २५) भावार्थ--भावयज्ञ को प्रगट करने वाले ध्यान का इस संसार के सब भूत-जीवों के लिये सर्व प्रकार से यथार्थ रूप कथन करके जो नेमिनाथ अपने को केवलज्ञानादि आत्मचतुष्टय के स्वामी और सर्वतः प्रगट करते हैं और जिनके दयामय उपदेश से जीवों को आत्मस्वरूप की पुष्टि शीघ्र बढ़ती है, उसकी आहुति हो ।
अर्हन विभषि सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति ।
(ऋग्वेद मं० २ सू० ३३, मंत्र १०) भावार्थ-हे अर्हन् ! आप वस्तु स्वरूप धर्म रूपी वाणी को, उपदेशरूपी धनुष को तथा आत्मचतुष्टय रूप आभूषणों को धारण किये हो। हे अर्हन् ! आप विश्वरूप प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त हो । हे अर्हन् ! आप इस संसार के सब जीवों की रक्षा करते हो। हे कामादि को जलाने वाले ! आपके समान कोई बलवान् नहीं है।
इस मन्त्र में अरहन्त की प्रशंसा है, जो जैनियों के पांच परमेष्ठियों में प्रयम हैं। श्री नग्न साधु महावीर भगवान् का नाम नीचे के मन्त्र में है
आतिथ्यरूपंमग्रसरं महावीरस्य नग्नहुः । रूपमुपसदामेतत्तिस्रो रात्रीः सुरासुता ॥
(यजुर्वेद, अध्याय १६, मन्त्र १४) योगवाशिष्ठ अ० १५, श्लोक ८ में श्री रामचन्द्र जी कहते हैं
नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः ।
शान्तिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ भावार्थ-न मैं राम हूं। न मेरी वांछा पदार्थों में है। मैं तो जिन के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति स्थापित करना चाहता हूं। वाल्मीकि रामायण (बालकांड १४ सर्ग, श्लोक १२)में महाराज दशरथ द्वारा श्रमणों को भोजन देने का उल्लेख मिलता है:
"श्रमणाश्चैव भुञ्जते'
श्रमणाः दिगम्बरा:-भूषण टीका महाभारत (वन पर्व अ० १८३, पृ० ७२७; मुद्रित १६०७ शरतचन्द्र सोम) के अनुसार हैहय वंशी काश्यप गोत्री आदि सबने महाव्रतधारी महात्मा अरिष्टनेमि मुनि को प्रणाम किया।
यहां २२वें तीर्थंकर का संकेत है, जिनका नाम ऊपर वेद के मन्त्रों में भी आया है।
मार्कण्डेय पुराण (अ० ५३) के अनुसार-ऋषभदेव ने पुत्र भरत को राज्य दे वन में जाकर महा संन्यास ले लिया। (यहां जैनियों के प्रथम तीर्थंकर का वर्णन है।)
भागवत के स्कन्ध ५ अ० २ पृ० ३६६-६७ में जैनियों के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को महर्षि लिखकर उनके उपदेश की बहुत प्रशंसा लिखी है। भागवत के टीकाकार लाला शालिग्राम जी पृ० ३७२ में लिखते हैं कि शुकदेव जी ने जगत् को मोक्ष-मार्ग दिखाया और अपने आप भी मोक्ष होने के कर्म किये, इसीलिये शुकदेव जी ने ऋषभदेव जी को नमस्कार किया है।
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