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आदि बड़े आकार का हो अथवा चींटी, मकोड़ा, मच्छर आदि छोटे आकार का हो, एकेन्द्रियधारी हो अथवा पंचेन्द्रिय हो, जलचर हो, थलचर हो या नभचर हो, समस्त जीवों की रक्षा करने का उपदेश जैन धर्म में दिया गया है। अतः विश्व धर्म कहलाने का अधिकार केवल जैन धर्म को ही है।
इसी 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धान्त महात्मा बुद्ध ने मान कर पशुयज्ञ का विरोध अवश्य किया परन्तु मांस भक्षण को अपना कर प्रकारान्तर से हिंसा का अंश रहने दिया । आज विदेशी बौद्ध साधु मांस भक्षण करते हैं । जैनधर्म ने अपने सबसे निम्न कोटि के अनुयायी को भी मांस का न खाना नियमित रक्खा। इस कारण संसार के जहाँ प्रायः सभी धर्मानुयायियों में मांस भक्षण प्रचलित है वहाँ केवल जैन धर्मानुयायी ही मांस भक्षण से अछूते हैं।
इसके सिवाय खान-पान के विषय में जैनधर्म का सुनिश्चित सिद्धान्त है। कौन पदार्थ किस दशा में भक्ष्य ( खाने योग्य) है और किस दशा में वह भक्ष्य नहीं है । पानी, दूध आदि पेय पदार्थों में से कौन-कौन पेय ग्राह्य हैं और कौन-कौन से अग्राह्य हैं ? कौन से सर्वथा अभक्ष्य अपेय हैं और क्यों हैं ? इसका सुनिश्चित वैज्ञानिक विवरण जैन धर्म के सिवाय अन्यत्र नहीं मिलता ।
जीवों का वर्गीकरण जैन सिद्धान्त में जिस सुन्दर ढंग से किया गया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। कौन जीव किस श्रेणी का है, उसकी कितनी इन्द्रियाँ और कितने प्राण हैं? कितनी उसमें ज्ञान शक्ति है ? इसका वैज्ञानिक उल्लेख जैन सिद्धान्त में पाया जाता है । वृक्षों में जीव प्रायः किसी भी धर्म ने नहीं माना, यदि किसी ने माना है तो वह इस विषय में पूरा खुलासा नहीं दे सकता । परन्तु जैनधर्म इस विषय में बहुत अच्छा विज्ञान सम्मत खुलासा बतलाता है। वनस्पतियों का वर्गीकरण बड़े अच्छे ढंग से जैन दर्शन ने किया है। उनकी ग्राह्यता, अग्राह्यता पर सुन्दर प्रकाश डाला है ।
जैनधर्म का आचार शास्त्र बहुत सुन्दर है । उसके समस्त नियम श्रेणीवार सुनिश्चित हैं । उनमें कहीं भी कमी या बेशी करने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को उच्च ध्येय की सिद्धि के लिये अपने जीवन्मुक्त अर्हन्त भगवानों तथा तीर्थंकरों की प्रतिमाएं बनवा कर उनका विधिवत् सन्मान पूजन करना, दर्शन करना भी जैनसिद्धान्त ने ही सबसे प्रथम संसार के समक्ष रक्खा । मूर्ति मन्दिर, शिखरवेदी का निर्माण, उनकी प्रतिष्ठा आदि के निश्चित नियम जैनशास्त्रों में बताये गये हैं । बुद्धि को परिपक्व करने के लिये स्याद्वाद सिद्धान्त तो जैनधर्म का एक अनुपम महान् सिद्धान्त है। इस तरह जैनधर्म ने प्रत्येक दिशा में बहुत स्पष्ट दिग्दर्शन किया है। जैन धर्म की प्राचीनता
जैन धर्म का उद्देश्य अर्थात् प्रयोजन संसारी आत्मा के पाप-पुण्य रूपी कर्ममैल को धोकर उसको संसार के जन्म-मरणा दि दुःखों से मुक्त कर स्वाधीन परमानन्द में पहुंचा देना होता है, जिससे यह अशुद्ध आत्मा शुद्ध होकर परमात्म-पद में सदाकाल के लिए स्थिर हो जावे। यह मुख्य उद्देश्य है और गीण उद्देश्य क्षमा, ब्रह्मचर्य, परोपकार, अहिंसा आदि गुणों की प्राप्ति करना है। यह जगत् अनादि है
जगत् कोई विशेष भिन्न पदार्थ नहीं है । चेतन और अचेतन वस्तुओं का समुदाय है, जैसे वृक्षों के समूह को वन, मनुष्यों के समूह को भीड़, हाथी-घोड़े-रथ-पयादों के समूह को सेना कहते हैं, वैसे ही यह जगत् या लोक पदार्थों के समुदाय का नाम है । यह बात आवान बुद्ध सभी जानते हैं कि जो वस्तु बनती है वह किसी वस्तु से बनती है, वह नाश होती है तो वह किसी अन्य वस्तु के रूप में परिव तित हो जाती है । अकस्मात् बिना किसी उपादान कारण के न कोई वस्तु बनती है, न नष्ट होकर वह सर्वथा अभाव रूप हो जाती है । दूध से घी, खोया, मलाई बनती है, मिट्टी चूना पत्थरों के मिलने से मकान बन जाता है, मकान को तोड़ने से मिट्टी, लकड़ी आदि पदार्थ अलग-अलग हो जाते हैं । यह सृष्टि का एक अटल और पक्का नियम है कि सत् का सर्वथा नाश और असत् का उत्पादन कभी नहीं हो सकता। अर्थात् जो मूल पदार्थ जड़ या चेतन हैं, उनका सर्वथा नाश नहीं होता है तथा जो मूल पदार्थ नहीं है वह कभी पैदा नहीं हो सकता । विज्ञान भी यही मत रखता है ।
किसी वस्तु का नाश नहीं होता । यह जगत् परिवर्तनशील है । अर्थात् इसके भीतर जो चेनन और जड़ द्रव्य हैं वे सदा अवस्थाओं को बदलते रहते हैं । अवस्थायें जन्मती और बिगड़ती हैं, मूल द्रव्य नहीं । इसलिए यह लोक सदा से है और सदा चलता जाएगा तथा अकृत्रिम भी है क्योंकि जो वस्तु आदि सहित होती है उसी के लिए कर्ता की आवश्यकता है, अनादि पदार्थ के लिए कर्ता नहीं हो सकता । यह जगत् स्वभाव से सिद्ध है । अर्थात् इसके सब पदार्थ अपने स्वभाव से काम करते रहते हैं ।
प्रत्येक कार्य के लिये दो मुख्य कारण होते हैं - एक उपादान, दूसरा निमित्त । जो मूल कारण स्वयं कार्यरूप हो जाता है उसे उपादान कारण कहते हैं । उसके कार्य रूप होने में एक व अनेक जो सहायक होते हैं उनको निमित्त कारण कहते हैं। जैसे पानी से
अमृत-कण
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