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इसी प्रकार भगवान् महावीर स्वामी का २५०० वां निर्वाण महोत्सव मनाने का विचार आया तो उस समय यह निश्चय "किया गया कि बड़ा उत्सव बम्बई में हो। भारत जैन महामण्डल और दूसरी संस्थायें इस ओर प्रयत्नशील थीं। हमने सोचा कि वहां इतनी दूर कौन जायेगा ? क्यों न दिल्ली में ही मनाया जाये।
बड़े प्रयत्न से भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण महोत्सव को मनाने वाली बड़ी कमेटी सरकार की ओर से बनाई गई। उसमें चारों समाजों के गण्यमान्य नेताओं के अतिरिक्त प्रत्येक समाज का एक आचार्य और एक मुनिराज रखने का निश्चय किया गया। दिगम्बर समाज की ओर से आचार्यों में धर्मसागर जी और मुनियों में विद्यानन्द जी का नाम रखा गया। उस समय हमारे मन में विचार आया कि जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों के प्रतिभाशाली आचार्यों और वक्ताओं के समतुल्य हमारा आचार्य भी तेजस्वी, कुशल और प्रभावसम्पन्न होना चाहिए, जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़ सके।
हमारी दृष्टि आचार्य देशभूषण जी महाराज पर गई। हमने उन्हें एक पत्र लिखा। महाराज का एक अनन्य भक्त पत्र लेकर जब जयपुर पहुंचा तो महाराज ने ध्यान से पढ़ा और बोले-तुम स्वयं जयपुर आओ। आमने-सामने बातचीत करके निर्णय करेंगे।
जब मैं जयपुर पहुंचा तो महाराज ने कहा कि मैं तो गिरनार जा रहा हूं-दर्शन की इच्छा है। मैंने महाराज से कहा, "महाराज गिरनार कहीं जाने का नहीं ! ढाई हजार वर्ष बाद भगवान् महावीर स्वामी का निर्वाण महोत्सव आया है। कौन मरा, कौन जिया? हम तो इसे बड़े उत्साह के साथ आपके संरक्षण में मनाना चाहते हैं और यह कामना करते हैं कि यह उत्सव जैनधर्म के पुनरुद्धार का कार्य करेगा।" कुछ गभीर होकर महाराज बोले, “मैं चलूं तो सही पर मेरे जाने से प्रयोजन क्या सिद्ध होगा ? कमेटी में मेरा नाम नहीं । उत्सव मनाने वालों ने मुझ से कोई चर्चा नहीं की । तुम बेमतलब मुझ पर जोर दे रहे हो।"
मैंने कहा-आचार्य श्री, यह मेरी ड्यूटी है कि कमेटी में आपका नाम होगा और समस्त कार्य आपकी देखरेख में ही सम्पन्न होगा। आप तो भगवान् महावीर की जय बोलकर दिल्ली चलने की तैयारी कीजिए। उन्होंने सहष स्वीकृति दे दी।
उसी दिन सर्वसुखदास जी की नशिया में जयपुर समाज की ओर से महाराज के प्रति आभार-प्रदर्शन और विदाईसमारोह सम्पन्न हुआ। दिल्ली जैन समाज के गण्यमान्य परम धार्मिक स्व० सेठ पारसदास जी मोटर वाले और उनके सुपुत्र उदीयमान श्री श्रीपाल जी एवं उनकी विदुषी पत्नी किरणमाला जी ने जयपुर से विहार करा दिया और थोड़े ही समय में आचार्य श्री का दिल्ली में पदार्पण हो गया।
आचार्य देशभूषण जी महाराज ने दिल्ली में आकर उत्सव का ऐसा भव्य वातावरण बनाया कि समस्त समाज में जागृति की लहर आ गई और जैन समाज के सभी सम्प्रदायों के आचार्य और साधु अभिन्न अंग की तरह कार्य में जुट गये। बड़ी कमेटी में महाराज का नाम आ गया । कुछ विरोध भी हुआ। एक स्थान से पत्र आया-आचार्य महाराज हमारे नेता नहीं हैं। अमुक नेता है। जब डिप्टी मिनिस्टर ने इस सम्बन्ध में चर्चा की तो उनसे कहा गया कि वे तो तपस्वी हैं। सामाजिक जागृति और समाज के मार्गदर्शन का काम इन्हीं का है। बात समाप्त हो गई।
आचार्य महाराज ग्रंथ-निर्माण के कार्य में स्वयं जुट गये और विद्वानों को प्रोत्साहन देकर कई उत्तमोत्तम ग्रन्थों का निर्माण इस अवसर पर कराया गया । वैदवाड़े के दि० जैन मन्दिर से प्राप्त भगवान् महावीर का सचित्र जीवन इसका मुख्य आधार बना ।
जब बड़ी कमेटी में जाने का अवसर आया, जो पालियामेंट भवन में होने वाली थी, तो कुछ विरोध हो गया। जाने में शिथिलता दिखाई देने लगी। दूसरे दिन मीटिङ्ग में पहुंचना था। कहा गया कि वे कहां बैठेगे। सब जगह कालीन बिछे हैं। कुसियां लगी हैं । अच्छा है, न जाएँ। हमने कहा-इतने परिश्रम से तो यह कार्य हुआ और जब अवसर आया तो ढील दिखाई जाने लगी। महाराज अवश्य जाएंगे और सभी व्यवस्था हम करेंगे। हम एक छोटी मेज और चौकी लेकर पार्लियामेंट पहुंचे। वहां का व्यवस्थापक एक सरदार था। हमने कहा, "सरदार जी ! हमारे गुरु न तो कालीन पर बैठते हैं, न घास पर पैर रखते हैं, न कुर्सी पर बैठेंगे। इस मेज पर बैठेंगे और चौकी पर उनके सेवक क्षुल्लक जी बैठेंगे । आप उचित स्थान पर कालीन हटाकर इन्हें लगा दें।"
सरदार जी ने कहा कि कहां लगाऊं ? मैंने कहा दो मन्त्रियों के बीच में लगा दें। उन्होंने उसी स्थान पर प्रथम पंक्ति में यह व्यवस्था कर दी जो सर्वोत्तम व्यवस्था थी। दूसरे दिन जब जाने का अवसर आया तो किसी अन्तर्दाह रखने वाले व्यक्ति ने ऐसा दूषित वातावरण बनाया कि प्रधानमंत्री का फोन आया है कि वहां नग्न साधु नहीं जा सकते।
जब मैं दो बजे जयसिंहपुरे के मन्दिर में पहुंचा जहां महाराज विराजे थे तो उन्होंने यह बात कही। मैंने कहा-आप यहीं बैठे रहें। जायेंगे तो चारों जायेंगे, नहीं तो कोई नहीं जाएगा।
कालजयी व्यक्तित्व
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