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गतिशील धर्मचक्र
क्षु० चन्द्र भूषण
मुक्तिलक्ष्मी का साक्षात्कार करने की भावना से श्री विद्याधर (वर्तमान में आचार्य विद्यासागर जी) के साथ मैं सन् १९६६ में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में चूलगिरि जयपुर पहुंचा था । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज उस समय जयपुर की पर्वत शृंखला में एक तपोवन एवं जिन मन्दिर के निर्माण में संलग्न थे । आचार्य श्री देशभूषण जी की कठोर साधना एवं रचनात्मक शक्ति को देखकर मैं मन्त्रमुग्ध हो गया।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के गौरवशाली चरण वास्तव में रचनाधर्मी हैं । उनके निकट सम्पर्क में रहकर मैंने यह अनुभव किया कि उनकी उपस्थिति मात्र से ही श्रावक समुदाय को नवनिर्माण की विशेष प्रेरणा मिलती है । २० वर्षों में उनके धर्ममय सान्निध्य से अनेक प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार और अनेक नए तीर्थों एवं मन्दिरों का निर्माण हुआ है। बीसवीं सदी का स्वातंत्र्योत्तर युग जैन वास्तुकला के इतिहास में देशभूषण युग के रूप में स्मरण किया जाएगा । अनवरत निर्माण की ऐसी सतत परम्परा विगत १००० वर्ष के जैन इतिहास में कहीं भी दृष्टिगत नहीं होती है।
जैन धर्म अपने आरम्भ से ही लोककल्याण की परम्परा से सम्पृक्त रहा है । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने भी एक निवृत्ति प्रधान धर्म के सर्वप्रमुख आचार्य होते हुए भी लोककल्याण के निमित्त अनेक जनोपयोगी संस्थान-अस्पताल, गुरुकुल, विद्यालय, धर्मशालाएं इत्यादि खुलवाए हैं । जनकल्याण के इन मंगल तीर्थों से न जाने कितने जीवन में आलोक पहुंचा है।
एक धर्म गुरु के रूप में जिनशासन की प्रभावना एवं साधु संघ के संरक्षण का उन्होंने जो महान् कार्य किया है वह दिगम्बर जैन आचार्य परम्परा में सदा-सदा श्रद्धा की दृष्टि से देखा जायेगा। एक सजग एवं व्युत्पन्नमति आचार्य के रूप में उन्होंने जैन धर्म को राष्ट्र से जोड़ा है और मौलिकता को बनाए रखा है।
सरस्वतीपुत्र आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी वास्तव में भारत माता के कंठहार हैं। अपनी राष्ट्रव्यापी पदयात्रा में भारत की सांस्कृतिक एकता एवं अखंडता को बनाए रखने के लिए आपने दक्षिण भारत के भक्तिपरक साहित्य को उत्तर भारत की भाषाओं में और उत्तर भारत के साहित्य को दक्षिण भारत की भाषाओं में प्रस्तुत करके एक अद्भुत उदाहरण स्थापित किया है । दिगम्बर मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए शताधिक रचनाओं का प्रणयन एवं सम्पादन भी वास्तव में एक विलक्षण उपलब्धि है।
आचार्यश्री की दीर्घ तपः साधना के प्रति भक्ति एवं श्रद्धा व्यक्त करने की भावना से अभिनन्दन ग्रंथ समिति ने जो स्तुत्य कार्य किया है उसके लिए समिति के सदस्यों एवं सम्पादन मण्डल को हमारा आशीर्वाद है। हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
श्री सुरेशचंद्र जैन
(नवीन शाहदरा)
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज को जैन समाज में एक सिद्ध पुरुष माना जाता है। उनके अद्भुत व्यक्तित्व एवं अलौकिक सिद्धियों को घर-घर में चर्चा होती है । 'आस्था और चिन्तन' के प्रकाशन के समय मैं केवल सदलगा की एक घटना का उल्लेख सुविज्ञ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहूंगा । आज के वैज्ञानिक युग में इस प्रकार की घटनाओं पर मानव-मन सहसा विश्वास नहीं करता, किन्तु जिस सत्य का चक्षुओं ने साक्षात्कार किया हो उसे कैसे अस्वीकार किया जा सकता है। मेरे साथ घटित हुई एक घटना का सत्य विवरण इस प्रकार है
7 सितम्बर, 1986 को परमपूज्य आचार्यरत्न के पावन सान्निध्य में मैंने 'ऋषि मंडल विधान' का सदलगा में आयोजन किया। इस विधान के सम्बन्ध में यह धारणा बन गई थी कि विधान के अनुष्ठान और नित्यप्रति की क्रिया के मध्य किसी भी समय तीव्र वर्षा होगी। सदलगा एक ग्रामीण क्षेत्र है और वहां की खुशहाली के लिए वर्षा का योग सुखद होता है । अत: वहां के भोलेभाले ग्रामीण भाई-बहिन वर्षा की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। अनन्त चतुर्दशी दिनांक 17 सितम्बर 1986 को मध्याह्न के समय एक श्रावक ने निराश होकर कहा कि आज विधान का समापन भी हो जायेगा किन्तु क्या इन्द्रदेव की कृपा नहीं होगी? उसी दिन सायं
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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