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हताश और स्वयं के जीवन के प्रति कितना निराश है। उसके अंधकारावृत्त मार्ग को प्रकाश-पुंज से आलोकित करने वाला कोई नहीं है ।
आज मनुष्य इतना स्वार्थान्ध हो रहा है कि स्वार्थ साधन के अतिरिक्त उसे और कुछ भी रुचिकर प्रतीत नहीं होता। ऐसी स्थिति में परमकरुणामय मानवता - सेवी सन्त पुरुष श्री देशभूषण महाराज का अन्तःकरण भला कैसे चुप रहता ? आपने उस निरीह मानवता का पथ आलोकित करने का संकल्प किया और सर्वात्मना इस कार्य में संलग्न हो गए। आपके कार्यक्षेत्र की यह विशेषता है कि आपका संदेश झोंपड़ी से लेकर महलों तक पहुंचता है। आपकी दृष्टि में सभी मनुष्य समान हैं और राजा रंक तथा धर्म-जाति का कोई भेद नहीं है । सभी को समताभावपूर्वक वीरवाणी का अमृतपान कराकर बिना किसी भेदभाव के सन्मार्ग पर लगाने का दुरूह कार्य जिस निर्भयता और दृढ़तापूर्वक आचार्य श्री ने किया है और कर रहे हैं, वह अलौकिक एवं अविस्मरणीय है ।
आत्म-साधना के पथ पर आरूढ़ होकर निरन्तर पांच महाव्रतों का अखंडरूप से पालन करने वाला, दस धर्मों का सतत अनुचिन्तन, मनन और अनुशीलन करने वाला, बाईस परीषहजय तथा रत्नत्रय को धारण करने वाला, शुद्ध परिणामी, सरल स्वभावी, अपनी अन्तर्मुखी दृष्टि से आत्म साक्षात्कार हेतु प्रयत्नशील तथा श्रमण धर्म को धारण करने वाला साधु ही श्रमण कहलाता है और निज स्वरूपाचरण में प्रमाद नहीं होना उसका श्रामण्य है । श्रमण सदैव राग-द्वेष आदि विकार भावों से दूर रहता है क्योंकि ये विकार भाव ही मोह-ममता एवं कटुता ईर्ष्या के मूल कारण हैं जिनसे सांसारिक बंध होने के साथ ही जीवन में पारस्परिक कलह एवं लड़ाई झगड़े की सम्भावनाओं-घटनाओं को प्रोत्साहन मिलता है । उपर्युक्त विकार भावों से श्रमण की आत्मसाधना में निरन्तर बाधा उत्पन्न होती है और वह अपने लक्ष्य एवं गन्तव्य पथ से विचलित हो जाता है । इसी प्रकार क्रोध - मान-माया-लोभ ये चार कषाय मनुष्य को सांसारिक बंधनों में बांधने वाले तथा अनेक प्रकार के दुःखों को उत्पन्न करने वाले मुख्य मनोविकार हैं । आत्मस्वरूपान्वेषी साधक श्रमण सदैव इन कषायों का परिहार करता है, ताकि वह अपनी साधना एवं लक्ष्य-साधन के पथ से विचलित न हो सके । चंचल मन और विषयाभिमुख इन्द्रियों के पूर्ण नियन्त्रण पर ही श्रमण साधना निर्भर है। आत्म-साधक श्रमण के श्रामण्य की रक्षा के लिए उपर्युक्त रागद्वेष आदि विकार भाव तथा क्रोध आदि चार कषायों का परिहार करते हुए इन्द्रियों का तथा मन का नियमन नितान्त आवश्यक है ।
श्रमण के जीवन में संयम एवं तपश्चरण के आचरण का विशेष महत्त्व है । उसका संयमपूर्ण जीवन उसे सांसारिक वृत्तियों : की ओर अभिमुख होने से रोकता है और तपश्चरण उसकी कर्म निर्जरा में सहायक होता है । संयम के बिना वह तपश्चरण की ओर अभिमुख नहीं हो सकता और तपश्चरण के बिना उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है ऐसी स्थिति में मोक्ष प्राप्ति हेतु आत्मसाधन का उसका ध्येय अपूर्ण रह जाता है। अतः यह सुनिश्चित है कि संयम धर्म का पालन तपश्चरण का अनुपूरक है । इस विषय में आचार्यों ने तप की
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जो व्याख्या की है, वह महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है। आचार्य उमास्वामी के का यह लक्षण संयम और तप के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करता है; निरोध करना ही संयम कहलाता है और तत्पूर्वक या उसके सान्निध्य से विहित क्रिया विशेष ही तपश्चरण है ।
मनुष्य की सभी इन्द्रियां भौतिक होती है, अतः उन इन्द्रियों से जनित इच्छाओं और वासनाओं की अभिव्यक्ति सांसारिक व भौतिक क्षणिक सुखों के लिए होती है । इन इच्छाओं और वासनाओं को रोककर इन्द्रियों को स्वाधीन करना, संसार के प्रति विमुखता तथा चित्तवृत्ति की एकाग्रता ही संयम का बोधक है । इस प्रकार के संयम का चरम विकास मनुष्य के मुनित्व जीवन में ही संभावित है । अतः संयमपूर्ण मुनित्व जीवन ही श्रामण्य का द्योतक है ।
अनुसार इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है । तप क्योंकि इच्छाएं और वासनाएं इन्द्रियजनित होती हैं। उनका
श्रमण परम्परा के अनुसार आपेक्षिक दृष्टि से गृहस्थ को निम्न एवं श्रमण को उच्च स्थान प्राप्त है; किन्तु साधना के क्षेत्र में निम्नोच्च की कल्पना को किंचिन्मात्र भी प्रश्रय नहीं दिया गया है। वहां संयम की ही प्रधानता है। इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् के वचन मननीय एवं अनुकरणीय हैं- "अनेक गृहत्यागी भिक्षुओं की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम प्रधान है और उनकी अपेक्षा साधनाशील संयमी मुनियों का संयम प्रधान है ।" इस प्रकार एक श्रमण में संयमपूर्ण साधना को ही विशेष महत्त्व दिया गया है। श्रम परम्परा के अनुसार मोह-रहित व्यक्ति गांव में भी साधना कर सकता है और अरण्य में भी कोरे देश परिवर्तन को श्रमण परम्परा कम महत्त्व देती है, साधना के लिए मात्र दिगम्बरत्व या गृहत्याग ही पर्याप्त नहीं है, अपितु तदनुकूल विशिष्टाचरण भी महत्त्वपूर्ण एवं अपेक्षित है । अपने विशिष्टाचरण एवं आसक्ति रहित त्याग भावना के कारण ही श्रमण को सदैव गृहस्थ की अपेक्षा उच्च एवं विशिष्ट माना गया है ।
इस प्रकार के धामच्य के प्रति उदात्तता एवं धर्मसहिष्णु पूज्यवर श्री देशभूषण जी महाराज का तीव्र आकर्षण प्रारम्भ से
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भाचार्यरल भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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