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___एक अपूर्व अतिशयी घटना
श्री मिश्रीलाल पाटनी
दिनांक २५-५-१९६३ को आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज लश्कर (ग्वालियर) में पधारे थे। अगले दिन लाभांतराय उदय से आचार्यश्री की पड़गाहन विधि नियम सहित मिल जाने के कारण मेरे घर पर उनका आहार हुआ। नवधाभक्तिपूर्वक मैं उन्हें जिस कमरे में कर-पात्र में आहार करवा रहा था उसकी छत पर स्वच्छ श्वेत चादर का चंदोवा बंधा हुआ था। अचानक महाराजश्री के सम्मुख लगभग एक गज की दूरी पर चंदोवे में से स्वच्छ जल की पाँच-सात बूदें टपकी, जिन्हें देखते ही महाराज ने कर-पात्र संकुचित कर लिया और अपवित्रता जानकर आहार लेना बन्द कर दिया। मैंने और मेरे परिवारजनों ने महाराजश्री से करबद्ध निवेदन किया कि वे आहार पुनः प्रारम्भ करें और उन्हें यह भी विश्वास दिलाया कि "चंदोवे के ऊपर या छत पर आस-पास कोई नाली भी नहीं है जहां से गन्दा पानी आ सके । यह तो वास्तव में महाराजश्रो के तपोबल की सिद्धि से किसी शासन देव द्वारा की गई सुगन्धित जल की वष्टि थी। यह उत्तम तपोबल का अतिशय है।" इस प्रकार आहार सानन्द निरन्तराय सम्पन्न हुआ और यह चमत्कार देखकर दर्शनार्थ आये हुए श्रावक समुदाय ने महाराजश्री का जयजयकार किया।
आहार-दान के बाद पीछी ग्रहण करने के पश्चात् हम सभी महाराज का चरण-वन्दन करने लगे तो महाराज ने कहा"तम बड़े वाचाल धर्मज्ञ जिनबन्धु हो।" मैंने कहा-"महाराज, आप मेरे घर आये यह मेरा परम सौभाग्य है। जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि तीर्थकरों के आहार के समय दाता के मकान पर पंचरत्न की वृष्टि होती थी। वर्तमान में कलियुग काल है, भोगभूमि काल नहीं, अतः रत्नों के स्थान पर आज सुगन्धित जल की वृष्टि हुई है।" महाराज बोले - “मैंने भी ऐसा दृश्य पहली बार तुम्हारे यहाँ ही देखा है। जल टपकता देखकर अपवित्रता के भय से मैंने हाथ संकुचित कर लिया था, किन्तु तुमने छत पर नाली न होने का विश्वास दिलाने और सुगंधित जल-वृष्टि की बात कह कर मेरी शंका दूर की। तुमने बाद में चादर खोलकर छत भी दिखलाई । वास्तव में आहारदान के समय तुम्हारे मन के उत्तम भावों के कारण यह अतिशयशाली घटना हुई है । तुम भाग्यशाली उत्तम धर्मज्ञ पुरुष हो।"
__ मेरे यहाँ महाराजश्री के आहार के समय फोटोग्राफर नहीं था, अतः इस अतिशय रूपी घटना के अवसर पर चित्र न ले सका। इसका मुझे दुःख रहा । अब तक मैं ५०-६० मुनियों व आर्यक-आयिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं को आहार-दान कर चुका है, लेकिन ऐसी घटना कमी नहीं घटी। आचार्य देशभूषण जी महाराज की साधना, संयम और तपोबल वास्तव में अद्वितीय हैं और उनका स्वयं का जीवन अलौकिकता के दिव्य गुणों से मंडित है। उनके श्रीचरणों में मेरा और परिवारजनों का भक्तिपूर्वक कोटि नमन है।
A DEVOTEE'S HOMAGE
Km. Shakuntala D. Chowgule
Acharyaratna Shri Deshabhushanji Maharaj is a great Jain saint of our times. He has traversed the length and breadth of the country spreading the gospel of Lord Mahavira wherever he went. My association with Acharyaji started in my childhood. I was overtaken by awe when I first met him, thinking that such a great and eminent personage would not take notice of a small child. But my fears were soon gone. To my pleasant surprise, I found that Acharyashri is a great lover of children. In fact he blesses everyone irrespective of one's age, with his benigo presence. He is so simple and unassuming that anyone can go to him and have his blessings. I started giving him Ahāra' since I was eight years of age. My first darshana' of Acharyaji filled me with holy and noble thoughts and inspired me to follow the path of dharma' as propounded in our scriptures. In our city Kolhapur, Acharyaji installed a 28 feet high idol of Bhagawan Vrishabhanath in the Lakshmisen Jain Matha. The local Jain community is running a college, two high schools and a library for the benefit of students. While paying my humble and respectful homage to this great saint and ascetic, I pray that he may continue to guide us along the path of dharma' for many more years to come.
कालजयो व्यक्तित्व
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