________________
आत्मानुसंधान और पर कल्याण का संकल्प
श्री राजेन्द्र प्रसाद जैन 'कम्मो जी'
परमपूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के पावन दर्शन का सौभाग्ग मुझे सन् १९५५-५६ में उनके दिल्ली के प्रथम वर्षा योग में ही प्राप्त हो गया था। महाराजश्री की सरल सौम्य मुद्रा, आकर्षक व्यक्तित्व, तप-निष्ठा एवं वाणी वैभव ने मुझे प्रथम क्षण में ही चमत्कृत-सा कर दिया था। उनके पावन दर्शन से मुझे यह आभास हुआ कि उनके निरन्तर दर्शन से राजधानी में धर्म की पावन मन्दाकिनी प्रवाहित होगी। आप में एक अद्भुत सम्मोहन शक्ति है और उसी से सम्मोहित हो कर मैं निरन्तर उनके चरण श्री में आत्म-कल्याण के निमित्त जाने लगा। उनके पावन सान्निध्य में मुझे यह अनुभव हुआ कि पूज्य आचार्य श्री की अपनी कोई आवश्यकता नहीं है और वे समग्रता से श्रमण-संस्कृति एवं साहित्य को समर्पित हो चुके हैं। वे निरन्तर स्वाध्याय, उपासना एवं लेखन में संलग्न रहा करते थे। अतः उनका अवलोकन करने से मन को शान्ति मिला करती थी। शान्ति की खोज में मैं निरन्तर उनके नैकट्य की कामना से उनके पास जाया करता था।
महाराजश्री एक कठोर तपस्वी हैं और शास्त्रों में वणित दिगम्बर मुनियों के आचरण को अपने जीवन में उतारने में सदैव तत्पर रहते हैं। कठोर व्रत-विधान एवं साधना से वे आत्मानुसंधान में निरन्तर लीन रहते हैं। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी जी के पावन उपदेश को जन-साधारण में प्रचारित एवं प्रसारित करने की भावना से वे धर्मोपदेश एवं धर्मग्रन्थों के प्रकाशन इत्यादि में सदैव रुचि लिया करते हैं। उन्होंने तीर्थंकर की वाणी को घर-घर तक पहुंचाने के लिए जो साहित्य-सेवा की है, उससे जैन समाज कभी भी उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।
महाराजश्री नव-निर्माण एवं जीर्णोद्धार के लिए श्रावक समुदाय का एक लम्बे समय से मार्ग-दर्शन करते आये हैं। लाला सरदारीमल रतनलाल जैन अतिथि गृह श्री दिगम्बर जैन धर्मशाला, कूचा बुलाकी बेगम, दिल्ली के निर्माण की प्रेरणा भी परमपूज्य आचार्य महाराज से ही मिली थी। धर्मशाला के रिक्त परिसर का अवलोकन करने के उपरान्त उन्होंने ही इस धर्मशाला के शेष भाग के निर्माण का परामर्श दिया था। उनकी भावना यह रहती थी कि धर्मशाला इस प्रकार से निर्मित करायी जाए जिस से समाज एवं त्यागी वर्ग दोनों ही धर्मशाला की सुविधा का पूरा-पूरा लाभ उठा सकें। निर्माण कार्य के दौरान वे स्वयं व्यक्तिगत रुचि ले कर कार्य का निरीक्षण किया करते थे और मेहनती श्रमिकों को पुरस्कार एवं मिठाइयां इत्यादि दिलवाया करते थे। उनके ही पावन सान्निध्य में राजधानी में अनेक प्रतिष्ठाएं, मुनि दीक्षाएं एवं अन्य मांगलिक आयोजन सफलतापूर्वक किये गये थे । भगवान् महावीर स्वामी के २५ सौवें परिनिर्वाण महोत्सव के आचार्यश्री मुख्य प्रेरक थे। इस कार्य के लिए उन्होंने यथाशक्ति प्रयास किया और उनकी पावन प्रेरणा से ही सम्पूर्ण राष्ट्र में भगवान् महावीर स्वामी का २५ सौ वां परिनिर्वाण महोत्सव शानदार ढंग से मनाया गया।
महाराजश्री जहाँ भी अपना मंगल, प्रवेश करते हैं, वहां वे अपने रचनात्मक कार्यों से एक अमिट छवि छोड़ देते हैं। जिस समय वे किसी परियोजना को कार्यान्वित करते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि वे उसी में तल्लीन हो गये हैं, किन्तु परियोजना पूरी होने के उपरान्त उनका विरक्त मन अपनी पूर्व परियोजनाओं के प्रति किसी भी प्रकार का राग-सम्बन्ध नहीं रखता। वे वास्तव में आत्मसिद्ध हैं और निरन्तर आत्मा के विकास में संलग्न रहते हैं। केवल धर्म के प्रचार-प्रसार की भावना से अनेक योजनाओं को अपने सबल व्यक्तित्व से पूरा कराकर समाज को उपकृत कर देते हैं। मैं उनके स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हुए भगवान् श्री जिनेन्द्र देव से यह कामना करता हूं कि आचार्य महाराज अपने दिव्य प्रकाश से समाज को लम्बे समय तक प्रकाश देते रहें।
कालजयी व्यक्तित्व
१३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org