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धर्मध्वजा के उन्नायक
पं० राजकुमार शास्त्री
आचार्यरत्न देशभूषण जी धर्मप्राण प्रभावक प्रवक्ता हैं । दाक्षिणात्य होते हुए भी आपकी भाषा अन्तस्तल को झकझोरने वाली होती है। मुझे याद है जब आचार्यश्री देहली में विराजमान थे, एक विदेशी विद्वान् आपके उपदेश को सुनकर गद्गद् हो गया था और उसने आचार्यश्री के चरण स्पर्श करते हुए सभा में ही आजन्म मद्य-मांस-सेवन का त्याग कर दिया था, अष्टमूल गुण धारण किये थे और अपने को जैन होना घोषित किया था। संयोगवश आचार्यश्री का उस दिन अष्टमूल गुणों पर ही प्रवचन चल रहा था।
जयपुर में एक आर्यसमाजी केशवदास जी ने आचार्यश्री से प्रश्न किया था कि आप दंतोन नहीं करते हैं । इससे तो दांतों में पायरिया की बीमारी हो सकती है, मुंह में बदबू आ सकती है, दंतक्षयादि की बीमारी हो सकती है। तब आचार्यश्री ने मुस्कराते हुए कहा था कि हम आहार करने के बाद मुखशुद्धि करते ही हैं। किन्तु याद रखिये कि दाँतों का आँतों से घनिष्ठ सम्बन्ध है । प्रायः सभी बीमारियाँ आँतों से संचित विष से होती हैं। जिसकी आँते खराब हैं, उसके दाँत भी खराब होते हैं । हम दिन में अल्प आहार लेते हैं । सर्वदा गर्म किया हुआ प्रासुक जल पीते हैं । हमें देख लीजिये । हमारे मुंह में आपकी बताई हुई एक भी बीमारी नहीं है। इस उत्तर से सभी आचार्यश्री के ज्ञान की गम्भीरता मान गये थे। आचार्यश्री की सभी विषयों पर अबाध गति है। बहुमुखी प्रतिभा है। गंभीर ज्ञान है । इसीसे आपने इस बीसवीं शताब्दी में श्रमण संस्कृति के उन्नयन में, धार्मिक जागति करने में ऐतिहासिक योगदान किया है। आपके प्रवचन से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में मानवों ने आपसे व्रत लिये हैं। अनेक व्यक्ति मुनि व आर्यिका जैसे महान् पद ग्रहण कर आत्मसाधना की ओर उन्मुख हुए हैं। विश्वधर्म के प्रेरक, प्रभावक वक्ता एलाचार्य मुनि विद्यानन्द महाराज आपके ही शिष्य हैं, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता से सम्पूर्ण भारत में अपने गुरु का नाम उज्ज्वल करते हुए अपना कीर्तिमान स्थापित किया है।
___ इस तरह आचार्यश्री अपने अनेक शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा तथा स्वयं भी पदयात्रा द्वारा आज के भौतिकता द्वारा अशान्त, क्लान्त सारे देश में भ्रमण कर जैन धर्म के महान् सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। वस्तुत: इस युग में धर्ममूर्ति, धर्मप्राण, महातपस्वी आचार्यश्री का आविर्भाव विश्व के लिये अप्रतिम वरदान है। उनके आध्यात्मिक उपदेशामृत का लाखों लोगों ने लाभ लेते हुए सुख व शान्ति की सही दिशा प्राप्त की है । सिद्ध तपस्वी, श्रमणों में अग्रणी, महामनीषी, बालब्रह्मचारी, आचार्यश्री के अनेक रचनात्मक कार्यों से भारतीय श्रमण संस्कृति का पक्ष उजागर हुआ है। जैन धर्म के प्रति और नग्न साधुओं के प्रति कुछ अविवेकी जनों द्वारा फैलाई गई अनेक भ्रान्तियों का आपके प्रभावक प्रवचनों व व्यक्तित्व-कृतित्व से निराकरण हुआ है। ऐसे परमोपकारी, विश्व वंद्य, धर्मध्वजा के उन्नायक आचार्यरत्न का जैनाजैन समाज चिरऋणी रहेगा और अपनी अगाध श्रद्धा उनके पावन चरणों में समर्पित करता रहेगा। हम भी तीर्थकर देशना के परम प्रचारक, सर्वकल्याणपरक, विश्वमंत्री के उद्घोषक, अकारण बन्धु, उद्भट विद्वान्, महान् तपस्वी, धर्मप्रभावक, परम पूज्य, श्रमणोत्तम, जगद्गुरु आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज के पावन चरणों में विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए उनकी दीर्घायु के लिये कामना करते हैं।
साधवो न हि सर्वत्र
श्री ताराचन्द जैन
स्वेच्छाचार विरोधिनी जैन दीक्षा फूलों की सेज नहीं है। इसकी कठोरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिगम्बर जैन साधु इने-गिने ही होते हैं । इन इने-गिने साधुओं में भी तपः पूत आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अग्रगण्य हैं । अपने कठोर तप और अभूतपूर्व त्याग के बल पर वे तृतीय परमेष्ठी के परम पद को प्राप्त कर चुके हैं और शिवमहल की ओर तीव्र गति से बढ़ रहे हैं । देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार अपने को समायोजित करने में कुशल आचार्यश्री ने अपने बहुमुखी व्यक्तित्व के बल पर जनकल्याण के अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । जैन समाज के चतुर्मुखी विकास में भी आपका अविस्मरणीय योगदान रहा है। सच्चे साधु के सभी गुणों से सम्पन्न आचायरल श्री देशभूषण जी महाराज के चरणों में मैं अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूं।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ.
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