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कालजयी चिन्तन के कुछ स्वर
श्रीमती निर्मला जैन (भरतराम रोड, दरियागंज)
आदिकाल से ही भारतवर्ष तत्त्वानुसन्धान की जन्मभूमि रही है। ऋषियों-मुनियों ने समय-समय पर अपने जीवन के अनुभवों से संसार को एक दृष्टि प्रदान की है। इसी परम्परा में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज का कालजयी चिन्तन आधुनिक मानव समाज को एक नया आलोक प्रदान करता है। आज के भौतिकवादी मूल्यों से आध्यात्मिक चेतना कितनी कुंठित हो गई है इसके प्रति आचार्यश्री ने अपनी गहरी चिन्ता व्यक्त की है। विज्ञान ने मनुष्य को जो नए चामत्कारिक आयाम प्रदान किए हैं उनसे भी मानव का मूल्य घटा ही है । यही कारण है कि भौतिक दृष्टि से समुन्नत माने जाने वाले अनेक राष्ट्र उस आन्तरिक पीड़ा से सन्तप्त हैं जिनके कारण उनकी मानसिक शान्ति भंग हुई है। परन्तु आचार्यश्री के चिन्तन में इस पीड़ा को दूर कर मनुष्य को आत्यन्तिक शान्ति प्रदान करने की क्षमता है।
सम्पदा का मूल्य-आचार्यश्री ने सारी परेशानियों के मूल 'सम्पदा' का मूल्याङ्कन करते हुए कहा है-"मैं यह नहीं पूछना चाहता हूं कि सम्पदा का मूल्य क्या है ? न यही पूछा करता हूं कि चैतन्य का मूल्य क्या है ? सम्पदा स्वयं मूल्यहीन है। हमारे ही चैतन्य ने उसमें मूल्य का आरोप किया है। सम्पदा के मूल्य को चैतन्य के मूल्य से अधिक मानें यह कैसी समझ है । यह कैसा विज्ञान है। सबसे बड़ी समझ और बड़ा विज्ञान है-समता । समता अर्थात् मनुष्य की मनुष्य के प्रति घृणा न हो, वैर-विरोध न हो, कुचलने की मनोवृत्ति न हो।"
संघर्ष का कारण-आचार्यश्री ने पारस्परिक संघर्ष भावना की मनोवृत्ति का भी विश्लेषण किया है। उनके अनुसार जहां द्वन्द्व है वहां संघर्ष है। अकेले में संघर्ष होता ही नहीं। जहाँ एक दूसरे के स्वार्थ आपस में टकराते हैं, विचारों में मतभेद हों, एकपक्षीय पोषण हो, सामान्य जनता की उपेक्षा हो, अधिकार अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में हो, पक्षपात होता हो-वहीं संघर्ष की स्थिति रहती है । संघर्ष की इस स्थिति से बचा जा सकता है परन्तु इसके लिए व्यवहार में सुधार लाना होगा। डोरी को इस प्रकार खींचो कि गांठ न पड़े। अपने को इस प्रकार चलाओ कि लड़ाई न हो। बालों को इस प्रकार संवारो कि उलझन न बने। विचारों को इस प्रकार ढालो कि भिड़न्त न हो । आक्षेप और आक्रमण की नीति को छोड़ दो। उससे गांठ बढ़ती है, युद्ध छिड़ते हैं और बातें उलझती हैं।
शान्ति और अशान्ति–सामान्यतया यह माना जाता है कि पदार्थ के अभाव में अशान्ति होती है और भाव में शान्ति । परन्तु आचार्यश्री ने इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया है। उनका मत है कि "मानसिक नियन्त्रण से मानसिक साम्य होता है और वही शान्ति है । मानसिक अनियन्त्रण से मानसिक वैषम्य बढ़ता है, वही अशान्ति है। जहां आकांक्षा है, वहां अशान्ति है । जहां आकांक्षा नहीं वहां शान्ति है । शान्ति ही मानव-जीवन का सर्वोपरि साध्य है । वह न तो सम्पदा होने से मिलती है और न सम्पदा न होने से । वह मिलती है मन की स्थिरता से । स्थिरता का विकास इन्द्रियों और मन के संयम से प्राप्त होता है । व्यक्तिगत संयम के अभाव में व्यक्ति अशान्त होता है। सामाजिक संयम के अभाव में समाज अशान्त होता है तथा राष्ट्रीय संयम के अभाव में सारा राष्ट्र अशान्त हो जाता है।"
समता का भाव-आत्मा में क्षोभ राग और द्वेष के कारण हुआ करता है । किसी अन्य वस्तु को अपनी प्रिय वस्तु मानकर उसके साथ मोही आत्मा राग-भाव करता है और किसी पदार्थ को अपने लिए हानिकारक मानते हुए उसके साथ द्वेष या घृणा का भाव रखता है । वास्तव में संसार का कोई पदार्थ न अच्छा है न बुरा। सब अपने-अपने रूप से परिणमन कर रहे हैं । अतएव किसी से प्रेम करना या द्वेष रखना आत्मा की ही अपनी मिथ्या धारणा का परिणाम है। इसी राग-द्वेष से आत्मा को परतन्त्र बनाने वाला कर्मबन्ध होता है। अतः आत्मा यदि स्वतंत्र होना चाहे तो उसको अपने राग-द्वेष पर नियन्त्रण करके समता का भाव लाना पड़ेगा जिसका अर्थ है न किसी से प्रेम और न किसी से वैर।
धन संचय की मर्यादा-धन संचय करते समय सदा ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह मधुमक्खी फूलों से रस लेते समय फूलों को कुछ कष्ट नहीं देती वैसे ही मनुष्य भी धन संचय करते हुए नीति, न्याय तथा दया की मर्यादाओं को न तोड़े। धन संचय करते हुए व्यक्ति के मन में दुर्भावना उत्पन्न न हो और न ही किसी अन्य व्यक्ति को दुःख पहुंचे । झूठ, चोरी, बेईमानी तथा विश्वासघात करके कमाया हुआ धन पाप का ही संचय करता है ।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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