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आचार्य रत्न अलीगढ़ नगर में
डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया
श्रमण संत प्रायः पद-यात्री होते हैं । वे मूलत: अपरिग्रही होते हैं । उनकी चर्या समितियों-ईया समिति, भाषा समिति, आदान निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापन समिति-से अनुप्राणित हुआ करती है। वर्षा-वास में उन्हें लगभग चार महीने तक एक ही स्थान पर टिकना होता है। ईर्या समिति उन्हें वर्षा-ऋतु में पंकिलपथ पर चलने की अनुमति नहीं देती।
___ कोई भी नगर उसके सुधी नागरिकों से शोभा प्राप्त करता है । नागरिकों की शोभा संतों के समागम से हुआ करती है । जीवनचर्या में उत्पन्न प्रमाद-प्राधान्य और आसक्ति-अतिशय संत आगमन से प्राय: शान्त होता है । संतों के उपदेशामृत से तथा उनकी सुधी चर्या से जो प्रभावना होती है उसे सामान्यतः शब्दायित नहीं किया जा सकता । जिनवाणी में भगवान जिनेन्द्र का कल्याणी संदेश व्यंजित रहता है । संतों की चर्या वस्तुतः जिनवाणी की प्रयोगशाला है। विश्व के विविध धर्म-समुदाय और उनके अनुयायी संत समय-समय पर कल्याणकारी चर्या-फलक प्रस्तुत करते रहे हैं, परन्तु जैन धर्मानुयायी संत सामान्यतः सरल और विरल होते हैं । उनकी चर्या निखिल विश्व में निराली और निरुपमेय होती है। उसमें समता का संदेश कदाचित् सर्वोपरि होता है। पहली और अकेली उनकी तत्त्व-बोधक चर्या व्यक्ति में व्याप्त विभु बनने की अद्भुत शक्ति का भान कराती है। उनकी दिगम्बरी मुद्रा और नासादृष्टि अंग-अंग में अंतरंग आलोक विकीर्ण करती है । ऐसे आलोक को पाकर प्रापक ममता का अंत कर समता से सराबोर हो जाता है।
अलीगढ़ अद्भुत नगरी है। मध्यकाल में वैचारिक दृष्टि से जो स्थान चित्तौड़गढ़ का था वही अधुनातन काल में अलीगढ़ का है। यहां हिन्दू-मुस्लिम दो भिन्न संस्कृतियां अभिन्न रूप में जीवित हैं। यहां अनेक धर्मावलम्बियों का समागम होता रहता है । देश-देशान्तरों के विख्यात विचारकों की वाणी-व्याख्या से यह नगरी लाभान्वित होती रही है। आश्चर्य की बात यह है कि दशाब्दियों से यहां जिनेन्द्र अनुयायियों के बीच श्रमण संत का मंगल आगमन नहीं देखा-सुना गया। सामान्य लोगों की बात तो दूर जैन लोग भी उनकी चर्या से अभिज्ञ रहे । अधिकांश लोगों को उनकी आहार-विधि, वैयावृत्ति का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं रहा । वास्तविकता यह है कि ये सारी बातें प्रयोग की हैं। पोथियों से ये बातें सामान्य जनता की परिधि स्पर्श नहीं कर सकती। ऐलक, छुल्लक तथा आर्यिका जैसी संत-भेदी संज्ञाओं से आज का सामान्य नवयुवक परिचित नहीं रहा है। नमोऽस्तु और इच्छामि कहां और किसको करनी चाहिए, सामान्यतः इसे वह नहीं जानता।
ऐसी अवस्था में आज से लगभग एक-डेढ़ दशाब्दि पूर्व श्रमणसंत परम्परा के बेजोड़ विश्रुत आचार्यरत्न १०८ श्री देशभूषण जी महाराज का मंगल आगमन अलीगढ़ में हुआ था। उनके शुभागमन से तपतपाती ज्येष्ठ की तपन भी शान्त हो चली थी । आकाश में अनाहूत दल के दल बादल आच्छादित होने लगे थे । वातावरण मानो संतशिरोमणि का स्वागत करने के ब्याज से यह परिवर्तन कर रहा हो । सभी जनमन हर्षित और गवित हो उठे थे । नक्षत्री जीवों के पवित्र चरणों के पड़ने से सारे ताप नि:स्ताप होने लगते हैं । सारा वातावरण सुखद और सहज हो उठता है । उस समय सारा अलीगढ़ सुख अनुभव करने लगा था ।
श्री उदयसिंह जैन कन्या कालिज प्रांगण में महाराजथी का प्रवास था। उस समय अलीगढ़ की पंडित परम्परा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जातिरत्न पं० इन्द्रमणि जैन वैद्य शास्त्री। उनके निर्देशन में आचार्यरत्न और उनके संघ की विधिपूर्वक व्यवस्था की गई थी। लोग जैन संतों के प्रवचन को सुनकर प्रभावित हुआ करते हैं किन्तु उनकी चर्या को देख सुनकर अतिशय धर्म की प्रभावना हुआ करती है। जैन-जनेतर जनसमूह उनके प्रवचन को सुनने के लिए समय पर उपस्थित होता । कुछ ही समय में पिच्छी और कमंडलु की महिमा जन-जन में मुखर हो उठी। प्रवचन में जैन धर्म के सच्चे स्वरूप को सुनकर लोगों में सुखानुभूति हो उठी। विशेषकर वे लोग संतोषित हुए जिनके मन में जैन धर्म के प्रति भ्रान्त धारणाएं व्याप्त थीं। उदाहरण के लिए जैन धर्म के चलानेवाले भगवान महावीर स्वामी थे-सामान्यतः जनसमूह की यह धारणा निर्मूल हुई और यह बात जानकर बहुतों को भारी आश्चर्य हुआ कि महावीर से बहुत पहले तेईस और तीर्थकर हुए हैं जिनमें ऋषभदेव पहले तीर्थकर थे। जैन धर्म में किसी व्यक्ति विशेष की
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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