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भूली-बिसरी यादें
श्री निहालचन्द्र जैन
अयोध्या के आचार्य देशभूषण दिगम्बर जैन गुरुकुल के अधूरे अध्याय में करुणावन्त, आचार्यरत्न पूज्य श्री देशभूषण जी महाराज के जीवन दर्शन का एक सम्पूर्ण सत्य उद्घाटित होता है । आज से ३० वर्ष पहले आपके अन्तस्तल में समाज के साधन-विपन्न किन्तु प्रतिभावान छात्रों की शिक्षा-दीक्षा और धार्मिक संस्कारों की इच्छा थी और हृदय समाज के इन नन्हें घटकों के लिए ज्ञान-ज्योतिकिरण सुलभ कराने की पावन भावना से आर्द्र था । सन् १९५० में अवधप्रान्त में मंगल विहार करते हुए आप तीर्थराज श्री अयोध्या जी पधारे थे। उस समय जैन मन्दिरों, जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, जैन धर्मशाला पर ब्राह्मणों का अतिक्रमण देखकर आपके महर्षि-मन पर तीर्थराज के भावी स्वरूप पर प्रश्नचिह्न लगा होगा । अतः स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी की भाँति यहाँ भी एक जैन प्रतिमान (ज्ञान-स्मारक) स्थापित करने की एक योजना, एक संदृष्टि, उनके महर्षि भावों में अवतरित हुई।
सन्तों के वचन, कार्य और परिणाम सार्वजनीन हित के लिए हुआ करते हैं। आचार्यरत्न की मंगलकामना से अभिभूत हो अवध प्रान्त के (विशेष रूप से लखनऊ, बाराबंकी, टिकैतनगर और फैजाबाद) श्रीमन्तों और सम्यक्त्वी श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री की लोककल्याणी भावना को मूर्तवन्त करने हेतु दिगम्बर जैन गुरुकुल की स्थापना का संकल्प किया जो पूज्य आचार्यश्री के पुनीत नाम के साथ जुड़ा हुआ हो । आचार्यश्री के आशीर्वचन और मंगल आशीष से सन् १९५३ में इसकी स्थापना हुई और इन पक्तियो के लेखक को उस गुरुकूल का प्रथम छात्र होने का सौभाग्य मिला । मुझ जैसे और बीस-पच्चीस छात्र, जो श्रीमन्तों के बेटे नहीं थे तथा सनाथ होकर भी अनाथ का मासूम चेहरा लिये हुए साधनहीन थे, लेकिन जिनके हृदय में शिक्षा और ज्ञान की प्यास थी, बुन्देलखण्ड को विदा कर यहाँ आये थे। आचार्यश्री का हृदय ऐसे ही बेटों के लिये आमन्त्रण दे रहा था। उनका सागर जैसा विशाल हृदय उन सीपियों को तलाश रहा था जो अपने में कुछ कर गुजरने की आकांक्षा की स्वाति बूंद समेटे हुए मोती बनने की प्रतीक्षा कर रही थी।
आचार्यश्री अन्तद्रष्टा हैं । उन दिनों इस तीर्थ क्षेत्र पर बढ़ते विवादों और ब्राह्मण पुजारियों के स्वामित्व और अनधिकार चेष्टा से सम्पर्ण क्षेत्र परिव्याप्त था। महाराजश्री इसे अहिंसात्मक ढंग से एक सौरभ में बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने एक ही विकल्प सामयिक और सारभूत समझा कि देश-प्रदेश के नन्हें-नन्हें घटक जैनधर्म, दर्शन और संस्कृति की शिक्षा लेते हुए एक सजग प्रहरी की भाँति इस तीर्थराज पर रहें और इसकी रक्षा में अपना परोक्ष योग दें। यह भावना भी थी कि क्योंकि अवध प्रान्त की ही जैन समाज इस तीर्थराज के प्रति उदासीन थी, अत: इस तीर्थराज के प्रति समर्पित भाव तथा एकनिष्ठ भाव से कार्य करने के लिये यह विद्या केन्द्र सभी के लिये एक आकर्षण-बिन्दु बनेगा और लोग इस तीर्थराज के प्रति उन्मुख होकर इसके विकास में अपना योगदान देगे। सन १९६५ में नवनिर्मित मन्दिर में ३२ फुट उत्तुङ्ग श्री आदिनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति की प्रतिष्ठापना में भी यही हेतक जडा हुआ है।
आज एक-एक करके अनेक घटनाएँ स्मृतिपटल पर आ रही हैं, जो हम सभी छात्रों ने पूज्य महाराज की अजस्र शक्ति से अनप्राणित होकर की होगी। कटरा स्थित जैनमन्दिर एवं विशाल धर्मशाला में ही गुरुकुल की स्थापना हुई थी, जिसके प्राङ्गण में एक बड़ी पाषाण पट्टिका लगी थी, जिसमें तत्कालीन ब्राह्मण पुजारी पं० सायरदत्त के दादा, परदादा के नाम लिखे थे और जिससे धर्मशाला पर इनके स्वामित्व की झलक उकेरी गई थी। हम अबोध बालकों ने उस पाषाण पट्टिका को उखाड़ फेंका। हमारी वह बाल विनोदमय क्रीड़ा उन पुजारी जी के लिये बगावत की एक चिन्गारी बन गई, जिसे बुझा देने के लिये पूरा वातावरण उत्तेजक हो गया । पण्डों और पुजारियों के लम्बे-लम्बे लट्ठ दिखाई देने लगे। सभी बालक एक अज्ञात भय से सिहर उठे । लेकिन जिनका कोई नहीं होता उनका ईश्वर होता है। आचार्यश्री का वरद् हस्त, मंगल शुभाशीष हम सभी के साथ था। किसी तरह पुलिस को खबर लग गई और दंगे की यह तैयारी आनन-फानन में टल गई। पुलिस ने शान्ति-स्थापना की कार्यवाही में विरासत का बखान करने वाली वह उखड़ी पट्टिका एक उखड़े दाँत की तरह पुनः किसी मसाले से जोड़कर वहाँ लगा दी। बात आई-गई हो गई। लेकिन टूटा दाँत तो और भी पीड़ा देता है।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पत्र
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