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जिन-शासन-प्रभावक आचार्यरत्न श्री देशभषण जी
स्वर्गीय श्री सुमेरचन्द जैन
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आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रभावना अङ्ग का लक्षण बताते हुए कहा है
विज्जा रह मारुढो, मणोरह पहेसु भमइ जो चेदा ।
सो जिणणाण पहावी, सम्मादिट्ठी मुणेयब्बो। जो आत्मा विद्यारूपी रथ पर चढ़कर मन रूपी रथ के मार्ग में भ्रमण करता है, वह जिनभगवान् के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है ।
चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज जैसे असाधारण तेजस्वी आचार्य थे उन्हीं की परम्परा में कतिपय ऐसी विभूतियाँ उत्पन्न हुई जिनके द्वारा जिन-शासन की महती प्रभावना हुई। उन्हीं मुनिरत्नों में आचार्य देशभूषण जी महाराज हैं, जिन्हें तीर्थों के उद्धार करने, विशाल जिनेश्वर के प्रतिबिम्ब स्थापित करने और विविध भाषाओं के वाङमय का अनुवाद करने में आनद आता है। दिल्ली में उनके पांच से अधिक चातुर्मास हुए। उन्होंने यहां पर रहकर अनेक गौरवशाली कार्य किए।
एक बार विश्वधर्म-सम्मेलन के प्रेरक विश्वविख्यात मुनि सुशीलकुमार जी ने मुझे बुलाया और कहा कि हम आपसे दो काम कराना चाहते हैं। प्रथम तो आप अपने किसी प्रभावशाली आचार्य को हमारे विश्वधर्म सम्मेलन में दि० जैन समाज के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित होने की व्यवस्था करवा दीजिए और दूसरे पचास सदस्य सौ-सौ रुपये के बनवा दीजिए। हम दिल्ली में विश्वधर्म सम्मेलन कर रहे हैं । यह जैन समाज के लिए गौरवशाली कार्य होगा।
हमने उनकी बात स्वीकार की। जैन समाज के कर्मठ कार्यकर्ता मुनिभक्त बा० पन्नालाल जी तेज वालों से सदस्य बनवाने का कार्य करने की प्रार्थना की तो उन्होंने शीघ्र ही पचास सदस्य सौ-सौ रुपये वाले बनवा दिए और पूर्ण सहयोग का वचन दिया।
प्रथम कार्य के लिए हमने उनसे नम्र निवेदन किया कि इस समय मुनि विद्यानंद जी महावीर जी में हैं और आचार्य देशभूषण जी महाराज मथुरा में हैं। विद्यानंद जी ने अभी दीक्षा ली है और इतने कम समय में वे दिल्ली नहीं आ सकते । आप अपनी ओर से समाज के प्रतिष्ठित पांच महानुभावों को मथुरा भेजिए और हम अलग से जाते हैं। उन्होंने ऐसा ही किया। जब हम मथुरा पहुचे तो देखा कि आचार्य महाराज सुबह-शाम में ही आगरा जाने की तैयारी में थे। वे प्रस्थान करने गले थे। हमने महाराज से निवेदन किया कि एक विश्वधर्म सम्मेलन विशाल रूप में दिल्ली में हो रहा है जिसमें संसार के साठ देशों के प्रतिनिधि सम्मिलित होंगे। हम चाहते हैं कि दिगम्बर जैनधर्म की ओर से आप प्रतिनिधित्व करें। आपके सिवाय कोई अन्य प्रतिभाशाली हमारा आचार्य नहीं है।
महाराज बोले-मैं तो संघ सहित आगरा जा रहा हूं। उनसे पुनः निवेदन किया गया कि ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, जब जैनधर्म को विश्व के धर्मों के सम्मुख रखने का सुअवसर मिलता है। विनती करने पर उन्होंने स्वीकृति दे दी। तीन दिन का समय शेष था। महाराज ने तुरन्त समस्त सघ को मथुरा में ही छोड़ा और अपने साथ वयोवृद्ध क्षुल्लक श्री जिनभूषण जी महाराज को, जो अत्यन्त जर्जर और क्षीणकाय थे, साथ लेकर दिल्ली की ओर चल दिये । चौथे दिन जब दिल्ली जैन समाज दिल्ली गेट के बाहर महाराज का स्वागत करने के लिए अस्थित हुआ तो हमने महाराज से कहा कि मथुरा से दिल्ली नव्वे मील है। तीन दिन में आप पाद-विहार कर दिल्ली आ गए, थके नहीं? तब उन्होंने ऐसा तेजस्वी उत्तर दिया जो स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । वे बोले-"धर्म प्रचार के लिए, नव्वे मील क्या, यदि नौ हजार मील भी जगह हो तो मैं सहर्ष जाने को तैय्यार हूं।"
समस्त समुदाय इस उत्तर से अत्यन्त गद्गद् हो गया और फिर जब विश्वधर्म-सम्मेलन हुआ तो प्रारम्भिक मंगलाचरण आचार्य श्री के द्वारा हुआ। विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि-जो रंग-बिरंगे रेशमी और बहुमूल्य वस्त्रों से अलंकृत थे-सभी महाराज के नैसर्गिक वेष, स्वाभाविक प्राकृतिक सौंदर्य, नग्न दिगम्बर मुद्रा को देख कर अत्यंत आह्लादित हुए, और न मालूम, उस समय रामलीला ग्राउंड में अथाह जन-समुदाय के बीच में कितने चित्र खींचे गए । सुशीलकुमार जी को ऐसा सम्बल मिला कि जैनधर्म की चारों ओर से जयजयकार हो गई और वे उनके भक्त हो गए। ९२
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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