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परोपकारी गुरुदेव
आज मुझे सन् १९५२ की बात याद आ रही है । मेरे हृदय में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हो चुके थे। मैंने विवाह बंधन से सर्वथा इन्कार कर दिया था और त्याग पथ पर चलने के लिये उत्कंठित हो चुकी थी। जब माता-पिता मुझे समझा-बुझाकर असफल हो गये, तब उन्होंने समझाने के लिये महमूदाबाद से मामा महीपालदास जी को बुलवाया। उन्होंने आकर अपनी भानजी को पहले तो प्रेम से समझाने का प्रयत्न किया, बाद में धमकाना व फटकारना शुरू किया और फिर युक्ति से बोले – “बेटी ! जैन सिद्धांत के अनुसार कुमारी कन्या को दीक्षा लेने का अधिकार ही नहीं है।"
तब मैंने कहा "बंदना भी तो कुंवारी थीं ब्राह्मी, सुन्दरी तथा अनंतमती भी तो कुंवारी ही थी।" मामा बड़े प्रेम से बोले - "बेटी ! तुझे मालूम नहीं, वे सब नपुंसक थीं।"
ग्रन्थ का स्वाध्याय
इस बात को पुष्ट करने के लिये उन्होंने बहुत-सी दलीलें दे डाली। मैंने मात्र पद्मनंदिपंचविशति करके ही वैराग्यरूपी महानिधि को पाया था तथा जम्बूस्वामी चरित्र, अनंतमती चरित्र आदि कुछ चरित्र पुस्तकें पढ़ी थीं। मैं एक बार तो ऊहापोह में पड़ गई. पुनः दुक्तापूर्वक बोली
आर्यिकारत्न ज्ञानमती जी
"नहीं मामाजी | वे कुमारिकायें ही थीं जैन धर्म में प्राणिमात्र को आत्मकल्याण करने का अधिकार प्राप्त है ।"
तब उन्होंने कहा - " जैन धर्म अहिंसा प्रधान है। यदि तेरे दीक्षा लेने से माता-पिता रो-रोकर अधमरे हो जायेंगे तो
जैनधर्म कहां पला ?”
मैंने कहा--"पता नहीं अनादिकाल से कितने माता-पिता को रोते हुए छोड़ा है ? यह सब संसार का नाता झूठा है। यहां भला कौन किसका है ?"
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कुछ ही दिनों में पूज्य आचार्यदेव श्री देशभूषण जी महाराज का आगमन लखनऊ में हुआ। सुनकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुई । मैं सोचने लगी कि दिगम्बर मुनि कैसे होते हैं ? कैसी उनकी चर्या होती है ? वास्तव में मेरे पुण्योदय से ही गुरुदेव का टिकैतनगर में पदार्पण हुआ था । दर्शन करके मुझे ऐसा लगा मानो मुझे भवसागर से पार करने के लिये कर्णधार आ गये हों ! मेरी प्रसन्नता का भलाक्या ठिकाना ! मध्याह्न में माँ के साथ गुरुदेव के निकट जाकर बैठ गई। महाराज जी ने भी सुन रखा था कि कोई वालिका विरक्त हो दीक्षा लेना चाहती है। मैंने अवसर पाते ही महाराज श्री से पूछा
"महाराज जी ! जैन शासन में क्या कुंवारी कन्या आत्म-कल्याण नहीं कर सकती ?"
महाराज ने गंभीर मुद्रा में कहा
"क्यों नहीं कर सकती ? कुंवारी कन्या क्या, जैन शासन में पशु-पक्षी को भी आत्म-कल्याण करने का अधिकार प्राप्त है ।"
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१५-२० दिन बाद आचार्य श्री का विहार होने लगा। मैंने साथ में जाने का उद्यम किया। समाज के साथ-साथ कुटुंबियों का विरोध द्विगुणित हुआ । घर के ताऊ, चाचा आदि सभी लोग बहुत कुछ विरोध में कहने लगे। बढ़ते हुए विरोध को देखकर एक क्षुल्लक जी ने, जो कि आचार्य श्री के साथ थे, समाज के लोगों को और भी अधिक उकसा दिया। वे बोले -" इसे आश्रम में छोड़ आओ।"
मैंने जैसे-तैसे अवसर प्राप्त कर आचार्य श्री से निवेदन किया
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ :
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