________________
अद्भुत है उनकी व्याख्यान-शैली
मुनि श्री कुन्दन ऋषिजी
भारत की राजधानी देहली में सन् १९६५ में जैन समाज के तीन सम्प्रदायों के आचार्यों का चातुर्मास था-दिगम्बर समाज के आचार्य श्री देशभषण जी, श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज के आचार्यसम्राट् पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज एवं तेरापंथी समाज के आचार्य श्री तुलसी जी। वहां पर समाज के अग्रगण्य लोगों ने तीनों आचार्यों का एक स्थान पर मिलाप भी कराया। इस मिलन का एकमात्र उद्देश्य था-एक दूसरे को निकट लाना, समाज का संगठन बढ़ाना और जैन समाज पर होने वाले आक्षेपों का एक बनकर प्रतीकार करना। इसके लिये दरियागंज मध्यवर्ती क्षेत्र चुना गया। ठीक समय पर तीनों आचार्य पहचे। मझे भी पूज्य गुरुदेव के साथ जाने का सुअवसर मिला। अभी दीक्षा ग्रहण किये दो-तीन वर्ष ही हुए थे। अनुभव भी नहीं था। मेरे लिए यह शायद पहला ही मौका था इन विभूतियों के सम्पर्क में आने का।
उक्त अवसर पर, परिधान-रहित, निर्वस्त्र, कृष्णवर्ण, सुगठित शरीर, भव्य ललाट, शान्त नयन, सौम्य मुख पर एक मस्कान से स्वागत की मुद्रा में नज़र आ रहे थे आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज । औपचारिकता के बाद सभी नियोजित स्थान पर बैठ गए थे। मेरी उत्कण्ठा जागी कि मैं भी बात कर लू, परिचय करूं, किन्तु बड़ों के सामने कुछ नहीं बोल सका। आचार्यत्रय का विचार-विमर्श चलता रहा। सभी महापुरुष सरलता, सौजन्यतापूर्वक विचार-विमर्श कर रहे थे। सभी की इच्छाएं थीं कि कुछ न कुछ ठोस कार्य हो, संगठन, स्नेह एवं सद्भाव बढ़े। विचार-विमर्श के बाद बैठक समाप्त हुई। सभी अपने-अपने स्थान पर पधारे। किन्तु सभी • बहुत ही निकट आ गये थे । बार-बार एक दूसरे से मिलने हेतु वचनबद्ध हुए थे।
भारत जैन महामण्डल ने विश्वमैत्री दिवस को लेकर एक मंच तैयार किया। सभी ने सरल भाव से पधारने की स्वीकृति • दी थी। देश के अनेक बड़े नेता भी आये थे।
गांधी मैदान में कार्यक्रम हो रहा था। पूज्य गुरुदेव के साथ मैं भी पहुँचा। हजारों की भीड़ थी। संभवतः मध्याह्न ३ बजे -से सभा का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। तीनों आचार्यों को बोलना था। सर्वप्रथम आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने अपना प्रवचन
प्रारंभ किया। सरल सीधी-सादी भाषा एवं कन्नड़-मिश्रित हिन्दी बोल रहे थे । भाव गहन एवं हृदयस्पर्शी थे। अद्भुत थी उनकी • व्याख्यान-शैली । जैन दर्शन का गहन अर्थ सरल करके दिखाते थे। जैन एकता पर आपने काफी जोर दिया था। उस दिन आपकी गंभीरता, सहृदयता, नम्रता और परस्पर सहिष्णुता का दर्शन हो रहा था। आपके उस व्यवहार ने सभी को आपके काफी निकट ला दिया था। आज भी वह स्मृति आती है तो सभी दृश्य सामने दृष्टिगोचर हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष युग-युग तक जीएं एवं जनता का मार्गदर्शन करते हुए जैन शासन की शान बढ़ाते रहें। यही शासनदेव से प्रार्थना है ।
प्रात: स्मरणीय
मुनि श्री बुद्धिसागर जी
(आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज संघस्थ)
परम पूज्य गुरुदेव प्रातः स्मरणीय श्री १०८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने अपना जीवन साहित्य साधना, तीर्थक्षेत्रों के निर्माण एवं धर्मभावना के लिए समर्पित कर दिया है।
मैं उनके चरण-कमल में त्रिकाल सिद्धभक्ति आचार्य भक्ति पूर्वक नमोऽस्तु निवेदन करता हूं।
कालजयी व्यक्तित्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org