Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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इंद्र
युद्ध में मृत्यु अर्थात स्वर्गप्राप्ति ऐसा अंबरीष ने बताया ( म. शां. ९९ कुं. ) । अग्नि ने इसे ब्राह्मण तथा पतिव्रता का महत्व बताया (म. अनु. १४ कुं. ) । शंवर राजर्षि ने इसे ब्राह्मणमाहात्म्य बताया (म. अनु. ७१ कुं.)। प्रशंसनीय क्या है यह एक शु पक्षी ने बताया (म. अनु. ११ कुं.)। किसी भी प्रकार की नौकरी के लिये आवश्यक गुण मातलि ने इसे बताये (म. अनु. ११ .)। धृतराष्ट्र गंधर्व के रूप में, गौतम ने इस से संवाद किया (म. अनु. १५९.) ब्राह्मण्यप्राप्यर्थ इंद्र को उद्देशित कर, मतंग ने तप किया, जिससे उसे ब्राह्मण्य प्राप्त हुआ (म. अनु. ४.११६.) ।
कृष्णसंबंध - कृष्ण, नरकासुर को मार कर सत्यभामासहित नंदनवन पर से जा रहा था, तब पारिजातक वृक्ष उसे दिखाई पड़ा, जिसे वह उखाड़ कर ले गया (ह. वं. २.६४ ) । उसने इंद्र से वह वृक्ष पहले मांगा तब इंद्र आनाकानी करने लगा । इन्द्र ने जयंतसहित कृष्ण से युद्ध किया परंतु कृष्ण ने इसे पराजित कर दिया तथा पारिजात वृक्ष ले गया (ह. थे. २.७५)। ऐसी परस्पर विरोधी घटना एक ही ग्रंथ में दी है। इसे जयंत को छोड़, ऋषभ एवं मीढुष ऐसे दो पुत्र थे ( भा. ६.१८.७ ) ।
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प्राचीन चरित्रकोश
धनिर्मिति इंद्र ने ब्रह्मकृत राजनीतिशास्त्र संबंधी 'वैशाला ग्रंथ को संक्षिप्त कर, 'बाहुदंतक' नामक पांच इनार अध्यायों का संशित ग्रंथ बनाया (म. शां. ५९.८५ ८९) ।
वैचक शास्त्र में भी इंद्र के नाम पर अनेक औषधियां इन्द्रजित् नाम पड़ा (बा.रा. उ. २९-२० ) । के पाठ हैं।
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२. बायु का शिष्य इसका शिष्य अनि (वं. ब्रा. २) ।
इंद्र मुष्कवत्सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.२) । इंद्र वैकुंठ सूक्त (ऋ. १०.४८-५० ) । इंद्रजानु रामचंद्रजी की सेना का एक वानर यह । १२ करोड वानरों का स्वामी था।
प्रा. च. १०
इंद्रजित् -- लंका के राजा रावण तथा मंदोदरी का ज्येष्ठ पुत्र । नाम मेघनाद, तथापि इन्द्र को जीतने के कारन, इसका इंद्रजित् नाम पडा । इसी नाम से इसका उल्लेख सर्वत्र किया जाता है (म. व. २००.१२ भा. रा. सा. ५३९ वा. रा. उ. २९-३० ) । जन्मते ही इस ने मेघ सी गर्जना की थी, इसलिये मेघनाद नाम रखा गया था (अध्या. रा. उ. १२ ) ।
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इंद्रजित्
यज्ञ - मेघनाद स्वभावतः भयंकर था। युवक होते ही इसने शुक्राचार्य की सहायता से निकुंभिला में अश्वमेध तथा अमिष्टोम बहुवर्णक, राजसूय, गोमेघ, वैष्णव, माहेश्वर ये सात यज्ञ किये जिससे उसे शिवप्रसाद से दिव्यरथ, धनुष्यबाण, शस्त्र, तामसी माया इत्यादि प्राप्त हुई । इसने और भी यज्ञ करने का मन में विचार किया था, परंतु रावण देवताओं से द्वेष करता था, इसलिये देवताओं को हविमांग देना इष्ट न था। इस कारण इंद्रजित को और यश करते न बने ( वा. रा. उ. २५ ) ।
इंद्र पर जय - देवताओं को जीतने के लिये रावण स्वर्गलोक गया था। यहां रावण के मातामह का वध हुआ तथा पराजय के चिन्ह दिखाई देने लगे। मेघनाद ने आगे बढ कर युद्ध किया । पहले तो उसने इंद्रपुत्र जयंत को पराजित किया तथा इंद्र को शस्त्रास्त्रों से जर्जर कर, उसे बांध लिया तथा लंका ले आया। सारे देवता ब्रह्मदेव को साथ ले कर लंका गये तथा मेघनाद को, इंद्र को छोड़ देने के लिये कहने लगे। तब इसने अमरत्व मांगा। आकारवाले सारे पदार्थ नाशवान है इसलिये अमरत्व दुर्लभ है ऐसा ब्रह्मदेव ने कह कर दूसरा वर मांगने को कहा, इस पर उसने वर मांगा जब भी मैं अभि में हवन करें -" तय अभि में से अश्वसहित दिव्य रथ निकला करे तथा जब तक उस रथ पर आरूढ रहूं तब तक में विजयी एवं अमर रहूं" वह वर दे कर ब्रह्मदेव इंद्र को मुक्त करा कर इंद्रपद पर स्थापित किया। उस दिन से मेघनाद का
हनुमान से युद्ध - रावण ने सीता को लंका में लाया । तब उसका पता लगाने के लिये राम की आज्ञा से मारुति लंका में आया। उसने अशोकवन विध्वंस कर रावण पुत्र अक्ष तथा अनेक राक्षसों को मारा। रावण के दुःख के निवारणार्थ इंद्रजित् ने वहाँ जा कर, मारुति को ब्रह्मास्त्र से बद्ध कर रावण की सभा में लाया । वास्तव में शास्त्र का मारुति पर कुछ भी परिणाम नहीं हुआ था यह बात इंद्रजित् को भी समझ गयी थी । मारुति ने रावण की सभा देखने तथा उसका भाषण सुनने के उद्देश्य से मैं बद्ध हुआ हूं ऐसा दर्शाया। धर्मबल की सहायता से इंद्रजित् ने यह भी जान लिया था कि, मारुति को अमरत्व प्राप्त है। रावण की सभा में हनुमान को जला देने की सलाह उसके मंत्रियों ने दी परंतु विभीषण ने सलाह दी कि, वानरों को पूंछ प्रिय होती है, अतः हनुमानजी की पूंछ जलाई जाये (वा. रा. सुं. ४८.५२) ।
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