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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०२ तृतीय रागढारनिरूपणम् पुलाकानां पञ्चविधवकुशानां प्रतिसेवना कुशीलस्य च संग्रहो भवति तथा च पुलाकादारभ्य कषायकुशीलान्ताः सर्वेऽदि सरागाः भवेयुनों वीराया भवेयु. रित्यर्थः । 'णियंठेगं भंते ! किं सगे होज्या पुच्छा' निर्ग्रन्थः खल्ल भदन्त ! कि सरागो भवेत् वीतरागो वा भवेत् इति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो सरागे होज्जा वीयरागे होजा' नो निर्गन्थः सरागः-सरूपायो भवेत् किन्तु वीतरागोऽपगतकपायो भवेदिति । 'जइ वीयरागे होज्जा कि उसंतकसायवीयरागे होज्जा खीणकसायवीयरागे होज्जा' यदि निन्थो वीतरागो भवेत् तदा किम् उपशान्तकपायवीतरागो भवेद क्षीणकपायबीतरागो भवेत् ? अगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयया' यह कथन कपाय कुशील तक जानना चाहिये । यहां यावत्पद ले पांच प्रकार के पुलकों का पांच प्रकार के बकुशों का और प्रतिसेवना कुशी ल का संग्रह हुआ है । तथा च-पुलाश ले लेकर पायकुशील तक के समस्त निग्रन्थ सा ही होते हैं वीतराग नहीं होते हैं। 'नियंठे गं भंते ! किलराणे होज्जन पुच्छ।' हे सरन्त निर्ग्रन्थ क्या सराग होता है ? अथवा बीताग होता है ? उत्तर में प्रमुत्री कहते हैं-'गोयमा ! णो सरागे होज्जा, बीथरागे होज्जा' हे गौतम ! निर्गन्ध लराग नहीं होता है, वीतराग होता है । क्योंकि वह अवगत करायवाला होता है । 'जह वीपरागे होज्जा, कि उबलतकलायचीयरागे होज्जा, खीणकसायवीयरागे होज्जा' है महन्त ! यदि वह वीतराग होता है तो क्या वह उपशान्त कपाय वाला होने से पीत्तराग होता हैं ? अथचाक्षीण कषाय वाला होने से वीतराग होता है ? उत्तर प्रभुनी कहते हैं 'गोयमा ! પાંચ પ્રકારના બકુશેના અને પ્રતિસેવના કુશીલ તથા કષાય કુશીલના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું તથા-પુલાક થી લઈને કષાય કુશીલ સુધીના સઘળા નિ न्या, ससा होय छे. पीत। जो नथी 'णियठेण भंते ! कि सरागे होजा' पुच्छा' हे सगवन् नि शुस। डीय छे ? -मथ! वीतराग डाय! म या प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४९ छ है.-गोयमा ! णो सरागे होजो, वीयराणे होज्जा' गौतम नि ५ सय होत नयी ५२तु पीत। डाय छे भो ते। षाय विनाना य छ, 'जइ वीयरागे होज्जा, कि उवसंतकसायवीयरागे होज्जा, वीणकसायवीयरागे होज्जा' लानुन ते वीतराय छे. તે શું તે ઉપશાંત કષાયવાળા હોવાથી વીતરાગ હોય છે ? કે ક્ષીણ કષાય વાળા હોવાથી વીતરાગ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે