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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१
०३ ज्ञानावरणीयकमाश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७३
अत्र समाधत्ते यत् अस्मादेव घाणात् अयोगित्वस्य प्रथमसमये घण्टालाल नन्यायेन परमशुक्ललेश्यास्तीति सदेश्यस्य चतुर्थो भङ्गो घटते इति । त्रं तु बहुश्रुतगम्यमिति । ' कलेस्से जाब पहलेसे पढसवितिया भंगा' कृष्णलेश्यो यावत् पालेश्यः प्रथमहितीयों भंगी कृष्ण लेश्यादारभ्य पद्मलेश्या विशिष्ट पर्यन्त लेइयावति जीवे अवध्यत् बध्नाति भव्त्स्यति १, अन्नात् वध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारकौ द्वौ भङ्गौ ज्ञातव्याविति कृष्णलेश्यादि पञ्चकेऽयोगित्वस्याभावादिति । 'सुकर से दवा गंगा' शुक्ल एलेन तृतीयभङ्गविहीनाः प्रथमलेइया वाले जीवके यह चतुर्थ भंग संभवता ही नहीं है फिर उसे यहाँ क्यों कहा गया है ? तात्पर्य इत्य कथन का यही है कि सलेश्य जीव के यह चतुर्थ भंग नहीं पता है ।
उत्तर -- इस सूत्र के धन से ही घंटालालन न्याय से पर ज्ञात होता है कि अयोधिक अवस्था में भी प्रथम समय में परमशुक्ल लेश्या का सद्भाव है । इलीले सलेश्य जीव के चतुर्थ भंग कहा गया है। और इसमें क्या विशेषता है सो यह बहुज्ञानी जानें । 'कण्हलेस्से जाब पहले से पढमचिनिया संगा' कृष्णलेश्य से लेकर पद्म लेश्या तक की लेइयाओं से विशिष्ट जीव में प्रथम और द्वितीय ऐसे आदि के दो अंग होते है तथा - 'सुक्कलेस्ले त विणा भंगा' शुक्ललेश्या वाले जीवों के तृतीय भंग के लिवाय प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते है। तात्पर्य यही है कि कृष्णादि पांच बेश्या वाले जीव के अयोगिता का अभाव होने से यह वेदनीय कर्म का अवन्धक नहीं
આ ચેાથે! ભ'ગ સભવતા જ નથી તેા તે ભગ અહિયાં કેમ કહ્યો છે ? કહેવાનું તાત્પ એ છે કે-લેમ્પાવાળા જીવને આ ચેાથેા ભંગ સભવતા નથી, ઉત્તર—આ સૂત્રના કથનથી ‘ઘ’ટાલાલન’ ન્યાયથી એમ જણાઇ આવે છે કે-ચેાગિક અવસ્થામાં પણ પહેલા સમયમાં પરમશુકલ લેશ્યાના સદ્ભાવ રહે છે. તેથી લેસ્યાવાળા છત્રને ચેાથેા લગ કહ્યો છે. તે શિવાય તેમાં શું વિશેષતા છે, તે વિશેષ જ્ઞાનિચે સમજી શકે.
'कण्हले से जाब पहले से पढमवितिया संगा' ट्यु बेश्याथी सहने પદ્મવૈશ્યા સુધીની લેસ્યાઓથી વિશિષ્ટ જીવમાં પહેલા અને ખીન્ને એ એજ लंग होय छे तथा 'सुक्कलेस्से तदचविहूणा भगा' शुभ्स सेश्यावाजा ने ત્રીજા ભંગ સિવાય પહેલે, ખીજો, અને ચેાથે! એ ત્રણ ભંગે હોય છે. આ સ્થનનુ તાત્પ એજ છે કે-કૃષ્ણ વિગેરે પાંચ લેશ્યાવાળા જીવને ચેગિણાના અભાવ હાવાથી તે વેદનીય કર્માંના અધક થતો નથી, તેથી