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भभगतीसूत्रे द्वितीयचतुर्थरूपा भङ्गा भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'अलेहसे चरिमो भंगों' अलेश्या लेश्यारहितः केवलीसिद्धश्च तस्य च अवघ्नात् न बध्नाति न मन्त्स्यति इति एक एव चतुर्थों भङ्गो भवतीति । 'कण्हषक्खिए पढमबितिया' कृष्णपाक्षिकस्य प्रथमद्वितीयमङ्गौ भवतः कृष्णपाक्षिकस्यायोगित्वाभावात् । 'सुक्कपक्खिए तइयविहूणा' शुक्लपाक्षिका, वृतीयविहीनास्त्रयः प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति शुक्ल. पाक्षिकस्या योगित्वस्यापि संभवादिति । 'एवं सम्मदिहिस्ल वि' एवं शुक्लपा. क्षिकवदेव सस्यगृदृष्टेरपि तृतीयविहीनाः प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति सम्पदृष्टेरयोगित्वस्यापि संभवेन बन्धासंभवादिति । 'मिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छा. होता है। इसलिये इसमें आदि के दो भंग कहे गये हैं तथा शुक्ललेश्या वाले जीव के खलेश्य की तरह तीन भंग कहे गये हैं। 'अलेस्से चरिमो भंगो' लेश्यारहित शैलेशीगत केवली और सिद्ध इनके केवल एक चतुर्थ हीभंग होता है। 'काहपक्खिए पढमपितिया' कृष्णपाक्षिक के अयोगिता के अभाव से प्रथम के दो भंग होते हैं। 'सुक्कपक्खिए तस्यविहूणा' शुक्लपाक्षिक जीव के अयोगिता भी वहां होने के कारण तृतीय भंग विहीन प्रथम द्वितीय और चतुर्थ भंग ऐसे तीन भंग कहे गये हैं। 'एवं सम्मदिहिस्सा वि' इली प्रकार से सम्पदृष्टि जीव के भी अयोगिता की संभवता से तृतीय भंग के विना प्रथम छितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते हैं । अयोगिता की संभवता से यहां वेदनीयर्कर्म के पन्ध की असंभवता है। इस कारण वहां मात्र तृतीय भंग का अभाव प्रकट किया गया है। 'मिच्छादिहिस्स सम्मानिच्छादिहिस्सय पढमवितिया' मिथ्या તેઓને આદિના પહેલે અને બીજે એ બે ભંગો કહ્યા છે. તથા શુકલ લેશ્યાવાળા જીવને વેશ્યાવાળા જીવની જેમ ત્રણ ભંગે કહ્યા છે.
'अलेसे चरिमो भंगो' वेश्या विनानी ने मेटले. शैवेशी अवस्था qणा जी मने सिद्धार 34 मे या माय छे. 'काहपक्खिए पदमधितिया' पाक्षि ने अयागीयाना मामा पो मने मान से मे. मग काय छ 'सुक्कपक्खिए तइयविहूणा' शुस पाक्षि: ५२ तमान અગપણ પણ હોવાથી ત્રીજા ભંગ સિવાય પહેલે, બીજા અને ચોથો એ ऋण लगे। ४६। छे. 'एवं सम्मदिद्विस्स वि' सेवा प्रभारी सभ्यष्टवाणा જીવને પણ અગિપણાની સંભવતાથી ત્રીજા ભંગ સિવાયના પહેલે, બીજે અને ચિશે એ ત્રણ ભંગો હોય છે. અગિતાની સંભવતાથી ત્યાં વેદનીય કર્મના બધનું અસંભવપણું છે. તે કારણથી ત્યાં ત્રીજા ભંગને અભાવ કહેલ છે.