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प्रमेषचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०८ पञ्चदशं निकर्षठारनिरूपणम् १४५ पर्यवयोगात् साधुरपि अभ्यधिक इति । लिय होणे त्ति' अशुद्धसंयमस्थानवतिवात् 'सिय हल्लेत्ति' एक संयमस्थानवत्तित्वात् 'सिय अन्भहिए त्ति' विशुद्धतर- . संयमस्थावनतित्वात् । 'जइ होणे अगंतभागहीणे दो' यदि होनः सनातीयपुलाकान्त रात् पुलाकः तदा अनन्तभागहीनो वा भवेत् अब खल्लु असद्भावस्थापनया'. है और विशुदतर पर्यायों के योग से वे अधिक कहलाते हैं-इन्हीं सेब बातों को लेकर प्रभुश्री ने गौतालस्वामी से उत्तररूप में ऐसा कहा है। सजातीय पुलाकान्तर ले एक्ष पुलाया स्वस्थान सन्निकर्ष से चारित्रपर्यायों की अपेक्षा कदाचित् हीन भी होता है क्योंकिविशुद्ध संयमस्थान सम्बन्धी होने से विशुना हुई एर्गयों की अपेक्षा, अविशुद्धतर संयम स्थान लम्बन्धी होने के कारण अविशुद्धतर पर्यायें हीन होती हैं और ऐसी अविशुद्ध र पर्शयों के योग से साधु भी हीन हैं ऐसा कहा जाता है तुल्य शुद्धियाली पर्शयों के योग से साधु भी तुल्य है ऐसा कहा जाता है तथा-विशद्धतर पर्यायों के योग से साधु श्री अभ्यधिक हैं ऐसा कहा जाता है। इस. लिये-अशुद्ध संघसस्थानपर्ती होने ले लिहीणे' ऐसा कहा गया है। एक जैसे संयनस्थानी होने से सियतुल्लेत्ति' ऐसा कहा, गया है और विशुद्धतर संयमस्थानवर्ती होने से लिय अभहिए त्ति': ऐसा कहा गया है।
'जाहीणे अणंलधागहीणे दा' यदि एक पुलाकमरे सजातीय पुलाक से हीन होता है तो वह उसे अनन्तमाग हीन भी हो सकता કહેવાય છે. આ તમામ પ્રકરણને લઈને પ્રભુશ્રીએ શ્રી ગૌતમસ્વામીને ઉત્તર રૂપે એવું કહ્યું છે કે-સજાતીય પુલાકાન્તરથી–અર્થાત્ સમાન જાતીવાળા બીજાં મુલાકથી એક પુલાક સ્વસ્થાન સંનિકર્ષથી ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી કંઈવાર હીન પણ હોય છે. કેમકે-વિશુદ્ધ સ યમરાન સ બ ધી હોવાથી વિશુદ્ધતર થયેલા પર્યાની અપેક્ષાથી અવિશુદ્ધતર સંયમ હીન હોય છે અને એવા અવિશુ. દ્વતર પર્યાના રોગથી સાધુ પણ હીન હોય છે તેમ કહેવામાં આવે છે સમાન શુદ્ધિવાળા પર્યાના રોગથી સાધુ પણ તુલ્ય છે તેમ કહેવાય છે. તથા વિશદ્ધતર પર્યાના વેગથી સ ધુ પણ અધિક છે તેમ કહેવાય છે. તેથી, मशुद्ध सयभवति वाथी 'सिय होणे' में भाणे उस छ. मे सरमा सयभ स्थानवति डावाथी 'सिय तुल्ले त्ति' से प्रभाये ४९ भने विशद्धतर सयभस्थानति पाथी 'सिय अमहिए त्ति' को प्रमाणे पाम आये ।
'जइहीणे अतभागहीणे वा न मे yals मीन सन्ततीय Yesan सीन डाय छ, तत तनाथी मनतमा जान पाय 3 श छे. 'असंखेज
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