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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७९०१० आभ्यन्तरतपोनिरूपणम् ४६३ इति प्रश्ना, मगवानाह-वइ विणए दुविहे पन्नत्ते' वचनविनयो द्विविधः प्रज्ञप्त, 'तं जहा' तद्यथा 'पसत्यवइविणए य अपसत्यवइविणए य' प्रशस्तवचनविनयश्व अपशस्तवचनविनयश्च । 'से किं तं पसत्थवइविणए' अथ कः स प्रशस्तश्चनविनया भगवानाह-'पसत्थवइविणए सत्तविहे पन्नत्ते' प्रशस्तवचनविनयः सप्तविधा प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा-'अपायए' अपापवावप्रवर्तनरूपो वाग्विनयोऽपापा । 'असावज्जे' असावद्या-विशेषतोऽपि पापरहितः । 'जाव अभूयाभिसंकणे' यावत् अभूताभिशङ्कनम् अभूताभिशङ्कनरूपो वाविनयः, अत्र यावत्पदेन अक्रियो निरूपक्लेशोऽनाश्रवकरोऽक्षपिकरः, इत्येषां ग्रहणं भवतीति । 'से तं पसत्थवइविणए' स एष सप्त प्रकारका प्रशस्तवाधिनयो निरूपित इति । 'से कि तं विणए' हे भदन्त ! सन्चन चिनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'बविणए दुविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! बचनविनय दो प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जैसे पलथवधिगए थ अपलत्थ्य वह विणए ये प्रशस्तवचन चिनय और अप्रशस्त बचन चिनय ‘से किं तं पसत्थवइविणए' हे भदन्त : प्रशस्त बचन विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पलत्थ बदविणए सत्तविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! प्रशस्त वचन बिनय लात प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'अपावए' पाप रहित वचन की प्रवृत्ति रूप वाग् विनय अपापक है १ 'असावज्जे २ असावध-विशेष रूप से पापरहित वचन 'जाब अभूयाभिसंकणे' यावत् जीवों को भय न उपजाने वाला वचनयहाँ यावत्पद से 'अक्रिय, निरूपक्लेशा, अनावकर अक्षपिकर' इन पदों का ग्रहण हुआ है। 'से तं पसथवइविणए' इस प्रकार से यह વિનય કેટલા પ્રકારના છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે थे 3-'वइविणए दुविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! क्यानविनय 2. रन हेस छ. 'त' जहा' ते मा प्रमाणे छे. 'पसत्थवइविणए य अपसत्थवइविणए य' प्रशस्त क्यनविनय मन मप्रशस्त क्यन विनय से कि तपसत्थवइविणए હે ભગવદ્ પ્રશસ્ત વચન વિનય કેટલા પ્રકારના કહેલ છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
छ8-'पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्ते के भीतम! प्रशस्त क्यन विनय सात प्रा२ने। उस छे. 'त जहा' त मा प्रभारी छे. 'अपावए' ५५ विनाना क्यननी प्रवृत्ति३५ पास-पयन विनय मा५४ ४२वाय छे १ 'असावज्जे' विशेष३५थी पाप दिनाना पयनने प्रयास २ त असावध क्यन उपाय छे. २ 'जाव अभूयाभिसंकणे' यावत् ल्वाने मय न तवनाश क्यन मिडियां यावर५६थी 'अक्रिय निरुपक्लेश, अनास्रवकर अक्षपिकर' मा