________________
प्रौय चन्द्रिका टीका शं०२५ उ.६ सू०११ २७ भवद्वारनिरूपणम् कुशीलत्वादियुक्तवकुशत्वेन पूरयतीति भावः । एवं पडिसेवणाकुमीलेवि' एव प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि । एवं वकुशवदेव प्रतिसेवनामुशीलस्यापि जघन्यत एक भवग्रहणं भवति उत्कर्षेण तु अष्टौ भवग्रहणानि भवन्तीति । 'एवं कसायकुसी. लेवि' एवं कपायकुशीलोऽपि कपायजुशीलस्यापि जघन्येन एकमवग्रहणमुत्कर्षतोऽष्ट भवनहणानि भवन्तीति । णियंठे जहा पुलाए' निर्ग्रन्थो यथा पुलाका, निग्रंन्यस्य पुलाकबहेव जघन्येन एक भवग्रहणमुत्कर्षतस्त्रीणि मनग्रहणानि भवन्तीति। 'सिणाए पुच्छा' स्नातकस्य खलु भदन्त ! कति भवग्रहणानि भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः भगवानाद-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक एकमेव भव-' ग्रहणं भवति स्नातकस्येति २७ ।। प्रत्येक भव प्रतिसेवनाशीलत्वादि रूप ले युक्त मशरूप से पूरण करता है । 'एवं पडिसेषणाकुसीले वि इसी प्रकार से प्रतिबलाकुशील भी जघन्य से एक सवत्रहण करके सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से. आठ भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। 'एतं कलायकुतीले वि' इसी प्रकार से भाषाय कुशील भी जघन्य से एक भा ग्रहण करके और उत्कृष्ट ले आठ भयों को ग्रहण कर के सिद्ध होता है । 'णियंठे जहा पुलाए' निन्ध पुलाक के जे जघन्य से एक अजयण करके और उत्कृष्ट ले तीन भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। सिणाए पुच्छा' हे अदन्त ! स्नातक कितने भलों को ग्रहण करके सिद्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री .कहते हैं-'गोयमा ! एक्को' हे गौतम ! स्नातक एक भव को लेकर सिद्ध होता है। सरद्वार का कथन समाप्त । 'एव पडिसेवणाकुसीले वि' मे०४ प्रमाणे । प्रतिसेवना Yशार धन्यथा એક ભવ ત્રણ કરીને સિદ્ધ થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવેને ગ્રહણ शन सिद्ध थाय छे. 'एव कसायकुसीले वि' २४ प्रमाणे ४षाय शीर પણ જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરીને અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભને ગ્રહણ ४शन सिद्ध थाय छे. 'णियठे जहा पुलाए' निय-2 पुना ४थन प्रभाएं: જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરીને અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ ભલેને ગ્રહણ કરીને सिद्ध थाय छ 'सिणाए पुन्छ।' है मगवन् स्नात डेटा लवाने पड शन सिद्ध थाय १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -'गोयमा! एकको ગૌતમ! મનાતક એક લવ ગ્રહણ કરીને સિદ્ધ થાય છે. ભવદ્વાર સમા રા